मंगलवार, 28 नवंबर 2017

जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ


जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ
इसकी-उसकी जाने किसकी याद में आहें भरता हूँ


बचपन वाला इक सूरज, जो चढ़ता रोज उतरता था
सब सपनों के सच्चे होने वाले वादे करता था
सूरज के झूठे वादों ने मुझको बहुत सताया है
पहले-पहल उसी ने मुझको झूठ का पाठ पढ़ाया है

अब छोटी-छोटी बातों पे खुश होने से डरता हूँ
जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ


कौन लड़कपन में थे दिल में, कौन निगाहे-पैहम थे
दिन भी रोशन, रातें भी उम्मीदों वाले मौसम थे
प्यार के सारे फूल खिले पर काँटों वाले जंगल में
सारे मौसम पतझड़ हो गए आखिर इस काफ़िर दिल में


उम्मीदों के फूलों में मायूसी के रंग भरता हूँ
जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ


जीने की जिद्द लेकर पहुँचा मैं पुरजोर लड़ाई में
और जवानी सारी बीती लालच की अंगड़ाई में
धन-दौलत, सम्पत्ति, माया के फेरे में जग सारा
प्यार, मुहब्बत, खुशियों का हर गीत फिरे मारा-मारा

इश्क, मुहब्बत, प्यार, वफ़ा की बेजा बातें करता हूँ
जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ


आने वाले दिन न जाने, और भी क्या दिखलायेंगे
देखे-भाले लोग सभी क्या पत्थर के हो जायेंगे?
नफ़रत माना, खून की भाँति नस-नस में बह जायेगी
इंसानों में, इंसानों सी बात न कुछ रह जायेगी?

भय और संशय में मैं अब साँसें लेते भी डरता हूँ
जीवन के बदरंग शहर में गलियों-गलियों फिरता हूँ

जीवन के बदरंग शहर में गलियों- गलियों फिरता हूँ
इसकी-उसकी जाने किसकी याद में आहें भरता हूँ



©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

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