सोमवार, 2 नवंबर 2015

दिल किसी के लुट गया दीदार से

दिल, किसी के, लुट गया दीदार से
रो रहे हम आज तक लाचार से

जान अपनी थी कि उनकी, क्या खबर

ले गये पर वो तो अख्तियार से

भेजते हैं फिर दिलों की अर्जियाँ

देखिये, क्या पाएँगे सरकार से

प्यार, नेकी, दिलबरी औ दोस्ती

क्या खरीदे जाएँगे बाजार से?

चाँद उनकी दीद के ढलते नहीं

क्यों निगाहें फेरिये रुखसार से

मेहरें हम पे हुईं ऐसी की फिर

जिंदगी भर राह थे अंगार से

माधुरी उनके लबों की क्या कहूँ

गालियाँ भी लग रहे अशआर से

नाम लेता हूँ खुदा का भी मगर

फुर्सतें पाता हूँ जब दिलदार से

उम्र भर ये रास्ते वीरान थे

आपके आने से हैं गुलजार से

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

अभी हाल दिल का सुनाया कहाँ है


जमीं-आसमाँ को मिलाया कहाँ है
अभी उसने जादू दिखाया कहाँ है


अभी से धड़कता है क्यों मेरा सीना
अभी उसने पर्दा हटाया कहाँ है


निगाहें नमी के भरोसे थीं लेकिन
कभी इतना तुमने रुलाया कहाँ है


नहीं याद उनको भी क़ुर्बत के लम्हे
हमें फ़ुर्क़तों ने डराया कहाँ है


रही जिन्दगी तो मिलेंगे दुबारा
अभी हाल दिल का सुनाया कहाँ है

कभी फुर्सतों में लड़ेंगे खुदी से
अभी हमने खुद को ही पाया कहाँ है


जिया वायदे पे हूँ उनके अभी, पर
कभी वायदे पे वो आया कहाँ है

बुनें ख़ाब कोई, चलो कल की खातिर
अभी हौंसला डगमगाया कहाँ है

यकीं है हमें आपकी तिश्नगी पे
कभी आपको आजमाया कहाँ है

चलें रक्स करते हुए हम भी, उसने
हमें बज़्म में पर बुलाया कहाँ है

उसे महफिलों में करें हम जो रुस्वा
नहीं, उसने इतना सताया कहाँ है


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

वायदा करके तो आया कीजिये

आशिकों पे रहम खाया कीजिए
वायदा करके तो आया कीजिए

नब्ज थमने सी लगी है आज फिर

फिर जरा चेहरा नुमाया कीजिए

जब सनम पत्थर हुये तो किस लिए

बेवजह आँसू बहाया कीजिए

मुस्कुराहट आपकी बेसूद है

जब तलक उल्फ़त न शाया कीजिए

दिल में आने से अगर परहेज है

रात ख़ाबों में न आया कीजिए

दूरियाँ कुछ भी नहीं, दिल से अगर

याद कीजे, याद आया कीजिए

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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मंगलवार, 29 सितंबर 2015

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं
पर कभी अहले-दिलों ने माने ये पहरे नहीं

मन उड़ा मन के सहारे हम सदा उड़ते रहे

आपसे पहले किसी ने इसके पर कतरे नहीं

वक्त का दरिया हमारे बीच बहता ही रहा

हम पहुँच पाये नहीं औ आप भी ठहरे नहीं

यह उदासी ही हमारी यार पुख्ता सी हुई

रंग इसके चढ़ गए ऐसे कभी उतरे नहीं

रात ख़ाबों में मिरी चीखें कोई सुनता न था

मैं बहुत चीखा,यकीनन लोग थे बहरे नहीं

है बहुत मुश्किल किसी को देख कर पहचानना 

ख्वाहिशें शानों पे लाखों हैं,मगर चिहरे नहीं

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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गुरुवार, 10 सितंबर 2015

आपसा भी मिला नहीं कोई

चाहतों का सिला नहीं कोई
दिल जलों का खुदा नहीं कोई

आपसे कम नहीं शिकायत, पर
आपसा भी मिला नहीं कोई

जानकर तुम बने हो' अनजाने
इससे बढ़कर अदा नहीं कोई

मौत हों मंजिलें भले, फिर भी
जिन्दगी तो सजा नहीं कोई

आ गले मिल कि जश्न तेज करें
कल किसी का पता नहीं कोई

आईना बन गई सजा मेरी
इस सजा की शफ़ा नहीं कोई

हादसे तो सफर में होते हैं
जिन्दगी का गिला नहीं कोई

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

कैसे तरसे मुफ़लिस पाई पाई को


तुम क्या जानो गाँवों की अमराई को
छाछ, दही, मक्खन औ दूध-मलाई को

चैत महीने फसलों पे बरसी आफत

फिर सावन में सूखे खेत तराई को

संसद में कपड़े फटने बस बाकी थे

नंगे तो मजदूर बहुत रुसवाई को

दुनिया के गम देखे तो महसूस हुआ

यूँ ही रोये रातों की तन्हाई को

कुछ तो कहिये क्यूँ हमसे नाराज हुये

कितने दिन खींचेंगे और लड़ाई को

कैसे बोटी-बोटी नोचा संसद ने

कैसे तरसे मुफ़लिस पाई-पाई को

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

रंग भरने को पर आसमाँ चाहिये

बेवफा जिंदगी को वफ़ा चाहिये
आसरा चाहिये इक सदा चाहिये

भूलके रास्ता खो चुके हैं निशाँ

देश को फिर नया रहनुमा चाहिये

जिंदगी और भी आशिकी से परे

बेवजह चाहिये खुशनुमा चाहिये

बेसबब आज रोये सरे राह हम

आँसुओं का जरा हौंसला चाहिये

दिल सहम ही गया आपने जब कहा

सामने से हटो रास्ता चाहिये

राहतों के अभी कुछ ठिकाने नहीं

चाहतें बेशुमार इंतिहा चाहिये

वे पड़ोसी हुये अब सदा को मिरे

दोस्ती का नया सिलसिला चाहिये

बात दिल की कहूँ बेजुबां न रहूँ

रंग भरने को पर आसमाँ चाहिये

आस तुमसे रही, बात दिल की कही

ये खता हो गई तो सजा चाहिये


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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बुधवार, 19 अगस्त 2015

दिल मेरा पत्थर नहीं है

आ कि मेरी धड़कनों में बस तुम्हारा नाम है
जिंदगी नेमत तिरी है औ तिरी पहचान है

तुम जिसे इस पार से उस पार तक खींचा किये

दिल मेरा पत्थर नहीं है इक जरा सी जान है

सख्त दिखना, सख्त रहना है तकाजा वक्त का

छू लिया, पाओगे भीतर मोम सा इंसान है 

सेहरी औ रोजे' की अफ्तार तक मुश्किल नहीं

मुफलिसों के वास्ते ताजिंदगी रमजान है

आज फिर मैं भीड़ में ढूंढा किया खुद को यहाँ

हाशिया मेरी हकीकत, तन्हाई पहचान है

झूठ उतरा आईने में औ हकीकत ये खुली

शायरी है दिल मेरा, सिर कुफ़्र का सामान है



©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

रह गई आपकी ही कमी दोस्तों

जान दी, दी उसी की हुई दोस्तों
रह गई इश्क की बंदगी दोस्तों

मैं चला, मंजिलों की तरह जिंदगी
दूर से दूर होती गई दोस्तों

काम था, नाम था, था सभी कुछ यहाँ
रह गई आप की ही कमी दोस्तों

हम रहेंगे नहीं, पर रहें इश्क की
आयतें जो हवा में लिखी दोस्तों

छोड़के तेरा' दर हम हुये दर बदर
है कहानी पुरानी वही दोस्तों

यूँ उतारी नजर, की नजर से उतर
हम गये, बस कमी ये रही दोस्तों

रात भर ये हवा गुनगुनाती रही
आपकी याद आती रही दोस्तों

जो तहें जिस्म की ही रहे खोलते
फिर कहाँ प्यास उनकी बुझी दोस्तों

हाथ भर था सफर, हाथ से ही निकल
तुम गये, तो गई जिंदगी दोस्तों


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 8 अगस्त 2015

तुम्हारे बिन न होंगे दिन हँसी के

रहे घर के न तेरी ही गली के
वही हैं हाल अब भी आशिकी के

कभी देखा जिसे परखा नहीं था
कहाँ कायल हुआ ऐसी खुदी के

बहारें लौट कर आती रहेंगी
तुम्हारे बिन न होंगे दिन हँसी के

इश्क में नेकनामी से भी बढ़कर
मिली नाकामियाँ, तमगे ख़ुशी के

वफ़ा उनकी न परखो यूँ अभी से
तरीके और भी हैं ख़ुदकुशी के

मिरे गम का नहीं इल्जाम तुझ पर
न मेरे आँसुओं में गम किसी के

बहुत खामोश हो फिर आज, शायद
यकीं तुमको था बातों पे उसी के

कभी भीतर उतर के ही न देखा
तुम्हारी मुस्कराहट, बेबसी के



©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

गुरुवार, 18 जून 2015

वक्त ने की जब भी बहुत बेवफाई की


वक्त  ने की जब भी  बहुत बेवफाई  की,
वर्ना क्यूँ हमने सजा पाई ये तन्हाई की.

तुमने उल्फत भी यूँ इतने पशोपेश में की
वस्ल  की रात हमें फिक्र रही जुदाई  की.

इश्क के दौर से निकले तो फिक्रदार हुए
तेरी गलियों में जब तलक थे शहनशाई की.

दश्त  दर दश्त है हर राह तेरे बाद  मगर
गुलो-गुलजार थी जब तूने रहनुमाई की.


आज सोजे-गम है कभी सरगम थी हयात
तेरे  होते  हमने देखी  हैं हदें  खुदाई  की.


हिज्र अब सारे मौसम, हिज्र है सारा आलम,
जाने क्यों नहीं भूली बात तेरी जुदाई की.


ऐसी चुप है धङकनों का शोर सुन रहा हूँ मैं,
जिंदगी  के  सूने राह पे  ये कैसी  रिहाई  की.


एक दरिया रोज दिल से आँखों तक भटकता है,
झूठी  हँसी  ढाँकती है बात  जग- हसाई  की.


सब्र  बेसब्र रहा, दिल ये मुन्तजिर ही  रहा,
उम्र तमाम देखा किये राह उसी हरजाई की.


                         ©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
                              सर्वाधिकार सुरक्षित

शुक्रवार, 12 जून 2015

हर इक गाम पे परखा गया


हर इक गाम पे परखा गया आजमाया गया
जिंदगी भर कहीं पे जोङा कहीं घटाया गया

कतरा-कतरा  सर-औ-पा  बिखराया  गया
तुम्हारे इश्क के काबिल मगर न पाया गया

तुम्हारे  वास्ते  दुनिया में  सारे  रंग भरे
फिर तेरे वास्ते दुनिया को ठुकराया गया


तुम्हारी चाहतें थीं हम जो यहाँ तक पहुँचे
खुद ही को भूल गये, इतना भरमाया गया


उफक  पे  सारे  सितारे हैं  सिर्फ  मेरे लिये
जमीं  पे  रोज  मुझे  ये  ही  फरमाया  गया


तुम्हारे  बाद  दिन, कोई  भी  तुझ सा न था
तुम्हारे  नाम  से हर  रात को  बहलाया गया


                       ©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
                             सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 9 जून 2015

सफर के बाद

सफर के बाद खाली हाथ मिला हर कोई
ये जिंदगी है संग-दिल ना गिला कर कोई.

तमाम सफ़र में कल के अंदेशे छाये रहे

तलाशने पर मेरे मन में ही मिला डर कोई.

जिंदगी की कोई मंजिल कभी होती ही नहीं

सिर्फ  राहें,  थोड़े  मौसम,  हमसफ़र कोई.

जीत जाने और हराने का दौर ये कैसा

मेरे कातिल दिल को चाहिए तेरी नजर कोई.

लोग उम्मीद की हवाओं पे यकीं करते हैं

मगर तबाही के चल पड़े हैं बवंडर कोई.

साफगोई मेरी तरकीब मान ली तुमने

तेरा सितम ना रहा हमपे बेअसर कोई.



©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शनिवार, 6 जून 2015

रात तेरी सोच में

रात  तेरी  सोच  में  डूबे  रहे  तारे  भी
चाँद भी मद्धम रहा फीके थे नज़ारे भी.

सीने में पहाड़ जैसा वक्त धड़कता रहा
दिल में आरजू जली, जलते रहे शरारे भी.

ना तसव्वुर पे भरोसा, ना हकीकत का यकीं
पतझडों संग खेलती रही हैं यूँ बहारें भी.

किस्मतों की रुखाई तस्दीक कर रहा हूँ मैं
ना ही तुम  गैर  बने  ना  हुए  हमारे भी.

शुक्र इसके बाद कोई दूसरा सफर ना था
जिंदगी  थी नंगे पैर  राह थे अंगारे भी.

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शुक्रवार, 5 जून 2015

सफर की रात

सफर की रात अगर साथ सितारे होते
तमाम  उम्र  फिर वो चाँद  हमारे होते.

कोई दो पल भी कभी आप हमारे होते

हमने सौ  जन्म तेरी  याद  गुजारे होते.

हिज्र की शाम कहीं तुमने पुकारा होता

तेरे गेसू  हमने  दिन-रात  संवारे  होते.

जिंदगी बहता हुआ एक संगीन दरिया है

काश मेरे लिए साहिल  से  इशारे होते.

भूखे, बेकार, बदनसीब होते जाहिल लोग

गर शँह शाहों के ना ताज उतारे होते.

तेरी तकरीर में महरुमों का भी जिक्र होता

तेरे दो रोज जो फुटपाथों के सहारे होते.

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

गुरुवार, 4 जून 2015

मंजिलें खोने लगीं अपने निशाँ


मंजिलें खोने लगीं अपने निशाँ
फासले  बढने लगे  हैं दरमियाँ

तुम पुकारोगे  भी कैसे प्यार से
    बढ गई हैं जिंदगी में तल्खियाँ    


*************

कुछ तो उनकी सोहबत का असर मेरे चेहरे पे है
कुछ  हवा के  झौंकों की  नजर  मेरे  चेहरे पे है

कुछ  तो है कि  लौट आया है  रुखों पे ओज सा
या गम-ए-हयात  की  दोपहर  मेरे  चेहरे पे है.



रविंद्र सिंह मान

सोमवार, 1 जून 2015

ऐ दोस्त! जिंदगी को सजाऊँ कैसे

ऐ दोस्त!  जिंदगी  को  सजाऊँ  कैसे
सख्त हालात हैं, हर बात बताऊँ कैसे?

जा चुके थे तुम अरमान लिये दूर बहुत
मैं सोचता ही रहा तुमको बुलाऊँ कैसे?

चलूँगा चार कदम और बिखर जाऊँगा
मेरा  वजूद  चूर-चूर  उठाऊँ  कैसे?

काँपती है मेरी आवाज गिरते पत्तों सी
ऐसी मुश्किल में तुम्हें साज सुनाऊं कैसे?

हर एक फूल पे पहरा है नजर खुश्बू पे
अब एहतियात से ये चमन जलाऊँ कैसे?

उसने की जब भी किसी से बेवफाई की
अब वो सोचे है जिंदगी से निभाऊँ कैसे?

पिया है  हमने  जहर वक्त के होंठो से
हाँ मैं जिंदा हूँ मगर होश में आऊँ कैसे?

तू जो देखे तो आफताब भी झुकाले नजर
पर मैं  नजरें तेरे  चेहरे से  हटाऊँ  कैसे?

दिया है उसने साथ पिछले मोङ तलक
ये  रहगुजर है  नई  पाँव बढाऊँ कैसे?

वो जतायेंगे अहसान करके कत्ल मेरा
ये दोस्ती है तो ये कर्ज चुकाऊँ कैसे?

शनिवार, 30 मई 2015

दीवानगी

दीवानगी

मेरी दीवानगी का असर देखिये
आज उनके हैं चश्म तर देखिये.

हम थक जायेंगे ये और बात है
अभी मंजिलों का सफर देखिये.

सादा-दिल लुटते हैं सदा के लिये
उनकी सादगी का कहर देखिये.

जम जायेगी तेरी आँखों में नमी
ना मेरा दर्द-ए-जिगर देखिये.

हम दिलजलों को पुकारते हैं दश्त
फिर शाम देखिये न सहर देखिये.

थोङी खुशनुमा थोङी गमगीन
जिंदगी की गुजर बसर देखिये.

चलते-चलते  रुक  गई  है हवा
आप मुङकर जिधर जिधर देखिये.

कितने बहके से हैं दिलों के हालात
जब से आये हैं वो ये शहर देखिये.

था हमें भी यकीं और उन्हें भी गुरूर
आज  किसके हैं  चश्म तर देखिये.

आज उनके हैं चश्म तर देखिये
मेरी दीवानगी का असर देखिये.


©1996 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शुक्रवार, 29 मई 2015

काश! मैं ऐसा कर पाती

काश !

ऐ काश! मैं ऐसा कर पाती
पंख  फैलाती  उङ  जाती

नील गगन की ऊँचाईयों में
हिम सागर की गहराईयों में
अपने मन के उल्लासों का
जग में कलरव कर पाती

तिनका तिनका घास उठाये
मधु का मन में आस लगाये
जगमग चुँधियाती आखों से 
गर परिहास जो कर पाती

पँख  फैलाती  उङ  जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

गैरों  से  घबराती सी
अपनों से  शर्माती सी
मेरे  मधुतम  गीतों से
नींद तुम्हारी छिन जाती

अपने पे  इठलाती सी
सत्य को झुठलाती सी
दूर-सुदूर पवन से आगे
खुश्बू बन-बन उङ पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

अपने भी हो पराये भी
तजे हुये अपनाये भी
अनजाने प्रिय समक्ष तुम्हारे
प्रणय निवेदन कर पाती

अपनों में सपनों में तुम
सीने की तपनों में तुम
याद सदा ही करती हूँ
पर आँहें नहीं भर पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

अनदेखा अनजाना सा
है  कोई  पहचाना सा
होठों पे खामोशी लेकर
अब मैं चुप नहीं कर पाती

तब भी मैं पाँखों के बिन
उखङी हुई साँसों के बिन
दूर नजर तक उङती हूँ
पर राहें नहीं मुङ पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

पँख फैलाती उङ जाती
पास तुम्हारे आ जाती
दोनों के अरमानों का
भेद तुम्हें समझा पाती


काश ! मैं ऐसा कर पाती


©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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जिस राह हम चले थे

जिस राह हम चले थे वो जरकार है अब भी,
तुमको मेरी  चाहत पे  इख्तियार है अब भी.

हम थक चुके हैं चलके मंसूबों  के जोर पर,
मंजिल जो चाहिये थी वो दरकार है अब भी.

तेरे तगाफुल ने जिस राह को मायूस किया,
तेरा, उसके हर मोङ को इंतजार है अब भी.

तेरे जाने से  इस दिल  की बेचैनी ना गई,
इक धङकन सी सीने में बेकरार है अब भी.

झूठी तेरी बातें, तेरा वादा-ए-आमद मगर
हर भरोसे पे दिल ये बरकरार है अब भी.

सूखे पड़े ऐसे जमीं दिल की तड़क गई
आँखों के बरसने का इंतजार है अब भी.

कोई भी बारिश इस तन को भिगाती नहीं
दिल को किसी दूजे से इन्कार है अब भी.

लोकराज में से "राज " चटकार गए तुम
भूखा सारा "लोक" मेरी सरकार है अब भी.

©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

कुछ शेर

जिंदगी   की  तेज  रफ्तारी  में   बदहवास  सी
मनुजता को अब किसी के दर्द का अहसास नहीं.

सूरज  मुङ  जाता है  छूके  अब उजालों  की  हदें
किरणों को भी अंधेरों में चलने का अभ्यास नहीं

*********

अब भी  मेरे सीने में  इक  नन्हा  उजला दाग सा है,
बिखर चुके गुलशन के लिये आँखों में इक खाब सा है.

सब दूर पास के लोगों को बाहर से सुनहरा लगता है,
इस मन का घरौंदा अंदर से कोई देखे तो बर्बाद सा है.



रविंद्र  सिंह  मान

तन्हाई


तन्हाई

कितनी तन्हा
होती है रात
इसके अपने ही
अंधेरों- ऊजालों में
इसका अपना भी
साया साथ नहीं देता
और इतना ही
तन्हा मैं हूँ

                   ©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
                          सर्वाधिकार सुरक्षित

मुहब्बत का नहीं तुम्हें यकीं


मेरी मुहब्बत का नहीं तुम्हें  यकीं फिर भी
लौट आया हूँ सारी दुनिया से यहीं फिर भी

साँझ के बाद से चलता हूँ मैं सहर के लिये
तमाम रात तू मिलता  नहीं कहीं फिर भी

है मेरी शक्ल भी और काम भी करता हूँ बहुत
क्यूँ मेरी जात पे जाना है लाजिमी फिर भी?

मेरे  हिस्से में आया  दश्त और यायावरी
तमाम उम्र चले मंजिल मिली नहीं फिर भी

वक्त की राह में तुम छूट गये पर अंत तलक
तेरी  उम्मीद  मेरी हमसफर रही फिर भी

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित