गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

गम से लबरेज मवाली नहीं होने पाए

 गम से  लबरेज मवाली नहीं होने पाए 

मैकदे में भी बवाली  नहीं होने पाए 


हम अना छोड़ कई बार उधर से गुजरे 

सिर कटा के भी सवाली नहीं होने पाए 


आंख दरिया थे कि बहते ही चले जाते थे

दिल समंदर थे कि खाली नहीं होने पाए


जिस मरासिम के भरोसे पे जिए हैं, उसकी 

सबने चाहा कि बहाली नहीं होने पाए


आंधियों  पर  भी कई  बार   यकीं   कर देखा  

फिर भी  सहरा के अहाली नहीं होने पाए


हमने देखा है चरागों की तरह जल कर भी

पर किसी घर की दिवाली नहीं होने पाए


लाख दुनिया के तकाज़े  ये मगर  लफ्ज़ मेरे

सिर्फ शेरों में ढले गाली नहीं होने पाए


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान