शनिवार, 4 नवंबर 2017

ठहर ही गईं फिर जमाने की रातें


बहाने बनाकर बुलाने की रातें
कहीं छोड़कर फिर न जाने की रातें

बड़ी मुश्किलों से जरा दिल जो ठहरा
ठहर ही गईं फिर जमाने की रातें

घनी थी सियाही शब-ए-गम की, फिर से
छिड़ी गेसुओं के फ़साने की रातें

बड़ी देर में दिल को राहत मिली थी
लो फिर आ गईं उनके आने की रातें

लगालें गले आप बस दो घड़ी को
नहीं चाहिये गुदगुदाने की रातें

कहाँ तक करें इन दिनों का भरोसा
नहीं अब कहीं आने जाने की रातें

रहे जागते रात भर सब सितारे
तिरी याद के वो जगाने की रातें


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित


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