रविवार, 15 सितंबर 2019

ऐसे भी बदले की आग बुझाई हमने



ऐसे  भी  बदले की आग  बुझाई हमने
इसकी शामें, उसके साथ बिताई हमने

रिश्ते तोड़ के जब भी चाहो जा सकते हो
तुमको अपनी कसमें  कब दिलवाई हमने

उल्फ़त में भी सब कुछ क़िस्मत से मिलता है
तुमने   दुनिया  पाई  औऱ  तन्हाई  हमने

तेरे ग़म को चुप करवाकर, अपनी आँखें
जाने  किसके  ग़म  में  रात जलाई हमने

सचमुच उसके  बाद  सुकूँ से जीता हूँ मैं
अक़्सर दिल को बात यही समझाई हमने

बहरे सन्नाटे तक  सुन कर  सहम गए थे
तेरी चुप को जब आवाज लगाई हमने

लाख हमारे घर तक दरिया आएं- जाएं
ख़ुद अपने से अपनी प्यास छुपाई हमने



©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार, 8 सितंबर 2019

हिज्र की रात मुक़द्दर से सितारे निकले



हिज्र की रात  मुक़द्दर से सितारे निकले
राह  में  टूटे   हुए  ख़ाब  हमारे  निकले

ग़ैर  ने   छूके   मुझे  हाथ  जलाए  अपने
राख समझा था जिसे सुर्ख अँगारे निकले

जब अकेले में तलाशी हुई दिल की अपने
मेरे अंदर से  सभी अक्स तुम्हारे निकले

इश्क तो  सिर्फ़  तमाशा था शनासाई का
रक़्स  करते  हुए सब लोग बंजारे निकले

उम्र भर दिल को डराते रहे तन्हाई-ओ-ग़म
यार माना तो ये दिलबर से भी प्यारे निकले

कुछ  मुक़द्दर के तमाशे  भी थे बर्बादी में,
बेशतर अपने  रफ़ीकों के  इशारे निकले

©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित