शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

छू के उसने मुझको पत्थर से नगीना कर दिया


आपने क्या खूब मिलने का ये वादा कर दिया
फिर उम्मीदों ने सभी मुर्दों को जिंदा कर दिया

इस मुहब्बत में हमारे गम तो दूने हो गये
और यादों ने तुम्हारी हमको आधा कर दिया

बन हकीकत फिर लिया हूँ, हर नगर, हर- हर गली
हर किसी ने मुझसे बचने का तकाजा कर दिया

सर्दियों में धूप ढ़लते ही हवा के शोर ने
सर्द शामों में छिपाकर और तन्हा कर दिया

हर शज़र पे फूल महकाने का जज़्बा था मगर
सानेहा की पतझडों ने मुझको नंगा कर दिया

चाहतें थीं, उल्फ़तें थीं, रंजिशों ने पर हमें
जिंदगी के वरक पर इक हाशिया सा कर दिया

मैं तो पत्थर था मुहब्बत के नगर की राह का
छू के उसने मुझको पत्थर से नगीना कर दिया

कल जरा सी बात पर रूठा रहा वो रात भर
मुख़्तसर थी वस्ल-ए-शब, उसको भी जाया कर दिया

रोज आलम पूछता था, मुझसे हर गम का सबब
आज इत्मीनान से तेरा खुलासा कर दिया

जो चला इस राह पर उसको फ़ना होना पड़ा
खुद को खोकर पर हक़-ए-उल्फ़त नुमाया कर दिया

आज गम कम था मग़र दिल ने हमेशा की तरह
याद उनको फिर से करने का इरादा कर दिया



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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रविवार, 11 फ़रवरी 2018

उल्फ़तों के मारों का दर्द भी न टलता है


गज़ल 


उल्फतों के मारों का दर्द भी न टलता है
चाँदनी के फाहों से रोज घाव जलता है


दिल भी इक जुआरी है, खुद ही दाँव चलता है
और हार के डर से भाग भी निकलता है


हूँ शमा मुहब्बत की, तुम बुझा तो दो, लेकिन
मैं दिया नहीं हूँ जो बुझ के फिर से जलता है


वो उदास शामें फ़िर, घिर के आई हैं दिल में
जिनमें दिल पे खुद का भी कुछ न जोर चलता है


मैं मजे में हूँ तब भी, तुझको याद करता हूँ
याद में तिरी फिर ये, खूब दिल मचलता है


गर पमाइशें दिल की नाप कर बता सकतीं
कौन दिल में रहता है , कौन यूँ उछलता है


 जिंदगी के सहरा में छाँव ढूंढ़ता हूँ मैं
और ख़ाब पेड़ों का साथ-साथ चलता है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

यूँ तो हर दर्द का बयाँ हम थे



यूँ तो हर दर्द का बयाँ हम थे
बात कुछ थी कि बेजुबाँ हम थे

जो निगाहें हुजूम-ए-यास रहीं
उन निगाहों का तर्जुमाँ हम थे

जब सफ़र में मुक़ाम नज़्र हुआ
सबकी नजरों में राएगाँ हम थे

हासिले-जिंदगी नहीं कुछ भी
दश्त-दर-दश्त इम्तिहाँ हम थे

दौर ऐसे भी दिल पे गुजरे हैं
हर्फ उनके थे औऱ जुबाँ हम थे

कुछ तो मजबूरियाँ भी थीं लेकिन
बेशतर यूँ ही बदगुमां हम थे

चल रही मेरे बाद भी दुनिया
मैंने समझा कि बादबाँ हम थे


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

कोई दिन जब जीने का मन नहीं होता



कोई दिन जब जीने का भी मन नहीं होता
अपनों में भी जैसे अपनापन नहीं होता

रेत के टीले सपनों में रह-रह आते हैं

दश्तों के संगीत ही तब मन को भाते हैं
आँगन में बहते जल बोझल हो जाते हैं
दूर सराबों में ही जब हम खो जाते हैं


रोज ही भाने वाला कोई उपवन नहीं होता

कोई दिन तो जीने का भी मन नहीं होता


चाक-चौबंद किये दामन भी चाक होते हैं

खुशियों के जंगल भी आखिर खाक होते हैं
 यूँ हम इस सूनेपन का  जश्न  मनाते हैं
दीवारों से मिलकर थोड़ा बतियाते हैं

किसी भी सूरत ये सन्नाटा कम नहीं होता

कभी-कभी तो जीने का भी मन नहीं होता


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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