मंगलवार, 29 सितंबर 2015

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं
पर कभी अहले-दिलों ने माने ये पहरे नहीं

मन उड़ा मन के सहारे हम सदा उड़ते रहे

आपसे पहले किसी ने इसके पर कतरे नहीं

वक्त का दरिया हमारे बीच बहता ही रहा

हम पहुँच पाये नहीं औ आप भी ठहरे नहीं

यह उदासी ही हमारी यार पुख्ता सी हुई

रंग इसके चढ़ गए ऐसे कभी उतरे नहीं

रात ख़ाबों में मिरी चीखें कोई सुनता न था

मैं बहुत चीखा,यकीनन लोग थे बहरे नहीं

है बहुत मुश्किल किसी को देख कर पहचानना 

ख्वाहिशें शानों पे लाखों हैं,मगर चिहरे नहीं

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

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