शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

और अकड़ते देखा तब-तब संसद की दीवारों को


झुलसी मिट्टी, बंजर धरती, सूखे नदी किनारों को
बदला- बदला देख रहा हूँ मौसम के रुखसारों को

ढ़हते घर, टूटे दरवाजे, उजड़े गली- दालानों की
किसने रोक दिया है, गांव के बाहर सभी बहारों को

मेहनतकश को अभी तलक भी मोल नहीं मिल पाया ठीक
क्या माने हम लाल किले की सालाना हुंकारों को

भूख, बेकारी, लाचारी ने, जब भी हक की बात कही
और अकड़ते देखा तब- तब संसद की दीवारों को

इंसानों का भाव नहीं है, काम नहीं है हाथों को, 
आग लगाएँगे क्या ऐसे सजे हुए बाजारों को

बच्चों को नहीं शिक्षा- दीक्षा, दवा नहीं बीमारों को
रेवड़ियाँ बँट रही हैं लेकिन यहाँ इज़ारेदारों को

शोर-शराबा, खून- खराबा, चोरी- हत्या, लूट- डैकत
कैसे कोई पढ़ सकता है, रोज- रोज अखबारों को

पानी बाँटा, माटी बाँटी, धरती को तकसीम किया
कल तुम देखना, बाँटेंगे हम सूरज- चाँद- सितारों को

कुछ चिहरों पर तिलक लगा था, कुछ के सिर पर टोपी थी
अब जाकर पहचाना अल्लाह- ईश्वर के हत्यारों को

नफरत, हिंसा पर झूठे मातम करते नेता से पूछ
किसने इस गुलशन में बाँटा त्रिशूलों, तलवारों को

जाने कैसी आग लगी है, जाने कैसी हवा चली
सुन के परिंदे काँप रहे हैं, हिंदू- मुस्लिम नारों को


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

सोमवार, 10 सितंबर 2018

जब दिन आता है.......




गरज- बरस करते मेघा, बिजली रह-रह चमकाती है
टप्पर पर गिरती बारिश से आँख नहीं लग पाती है
रात उनींदी थके-पके, क्या- क्या सपने दिखलाती है

सहसा भीतर-भीतर कोई धड़का सा लग जाता है
और डरके जगते ही सामने गर सूरज दिख जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


किसी-किसी दिन साँझों से ही मनहूसी छा जाती है
रात तो जैसे और भी ज्यादा तन्हाई सुलगाती है
कमरे के कोने-कोने में नीरवता झुँझलाती है


खिड़की खोल के रोज सितारों से थोड़ा बतियाता हूँ
जिससे कल बातें की थीं लेकिन जब उसे न पाता हूँ
कहाँ गया वो आज सितारा सबसे पूछना चाहता हूँ


आखिरी पहर तलक भी लेकिन ये तय नहीं हो पाता है
जिससे भी मैं बात करूँ वो ही क्यूँकर खो जाता है
और फिर भीतर का अँधियारा चहुँ ओर इठलाता है

क्या बतलाएँ कैसा गहरा सन्नाटा छा जाता है
पर जब पूर्व आहिस्ता से लाल सुर्ख हो जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


लेकिन जीवन के रस्ते अनिश्चित, अप्रत्याशित हैं
जाने किन बातों से जुगनू रातों में उत्साहित हैं
जाने किस उम्मीद पे आँखें सपनों को लालायित हैं

ऐसे विकट पलों में मन कैसे आशा रख पाता है?
घुप्प अँधेरों में जब-जब कोई दीया जल जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित