मंगलवार, 6 सितंबर 2016

हमें अपनी लकीरें खुद बदलना भी जरूरी है

मुक़द्दर के समन्दर से निकलना भी जरूरी है
हमें अपनी लक़ीरें खुद बदलना भी जरूरी है

मिरा हक था कि अपने प्रेम को साबित करूँ पहले
तिरी ज़ुल्फ़ों का उसके बाद ढलना भी जरूरी है

खफा जब दौर था हमसे, जलाये दिल-जिगर ऐसे
मुकाबिल आँधियों के दीप जलना भी जरूरी है

शिकायत औ गिले-शिकवे पुराने ढंग उल्फ़त के
जरा सी बात पे क्या खूँ उबलना भी जरूरी है

कहीं घूँघट, कहीं बुरका गुलामी का तरीका है
इसे इतराज के परचम में ढलना भी जरूरी है


नया उत्सव है आज़ादी, नया इखलाक आइन है 
पुराने सब ख़ुदाओं को बदलना भी जरूरी है


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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