मंगलवार, 29 सितंबर 2015

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं

इश्क पे पाबंदियाँ लगती रहीं मुहरे नहीं
पर कभी अहले-दिलों ने माने ये पहरे नहीं

मन उड़ा मन के सहारे हम सदा उड़ते रहे

आपसे पहले किसी ने इसके पर कतरे नहीं

वक्त का दरिया हमारे बीच बहता ही रहा

हम पहुँच पाये नहीं औ आप भी ठहरे नहीं

यह उदासी ही हमारी यार पुख्ता सी हुई

रंग इसके चढ़ गए ऐसे कभी उतरे नहीं

रात ख़ाबों में मिरी चीखें कोई सुनता न था

मैं बहुत चीखा,यकीनन लोग थे बहरे नहीं

है बहुत मुश्किल किसी को देख कर पहचानना 

ख्वाहिशें शानों पे लाखों हैं,मगर चिहरे नहीं

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

आपसा भी मिला नहीं कोई

चाहतों का सिला नहीं कोई
दिल जलों का खुदा नहीं कोई

आपसे कम नहीं शिकायत, पर
आपसा भी मिला नहीं कोई

जानकर तुम बने हो' अनजाने
इससे बढ़कर अदा नहीं कोई

मौत हों मंजिलें भले, फिर भी
जिन्दगी तो सजा नहीं कोई

आ गले मिल कि जश्न तेज करें
कल किसी का पता नहीं कोई

आईना बन गई सजा मेरी
इस सजा की शफ़ा नहीं कोई

हादसे तो सफर में होते हैं
जिन्दगी का गिला नहीं कोई

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 9 सितंबर 2015

कैसे तरसे मुफ़लिस पाई पाई को


तुम क्या जानो गाँवों की अमराई को
छाछ, दही, मक्खन औ दूध-मलाई को

चैत महीने फसलों पे बरसी आफत

फिर सावन में सूखे खेत तराई को

संसद में कपड़े फटने बस बाकी थे

नंगे तो मजदूर बहुत रुसवाई को

दुनिया के गम देखे तो महसूस हुआ

यूँ ही रोये रातों की तन्हाई को

कुछ तो कहिये क्यूँ हमसे नाराज हुये

कितने दिन खींचेंगे और लड़ाई को

कैसे बोटी-बोटी नोचा संसद ने

कैसे तरसे मुफ़लिस पाई-पाई को

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित