शनिवार, 30 मई 2015

दीवानगी

दीवानगी

मेरी दीवानगी का असर देखिये
आज उनके हैं चश्म तर देखिये.

हम थक जायेंगे ये और बात है
अभी मंजिलों का सफर देखिये.

सादा-दिल लुटते हैं सदा के लिये
उनकी सादगी का कहर देखिये.

जम जायेगी तेरी आँखों में नमी
ना मेरा दर्द-ए-जिगर देखिये.

हम दिलजलों को पुकारते हैं दश्त
फिर शाम देखिये न सहर देखिये.

थोङी खुशनुमा थोङी गमगीन
जिंदगी की गुजर बसर देखिये.

चलते-चलते  रुक  गई  है हवा
आप मुङकर जिधर जिधर देखिये.

कितने बहके से हैं दिलों के हालात
जब से आये हैं वो ये शहर देखिये.

था हमें भी यकीं और उन्हें भी गुरूर
आज  किसके हैं  चश्म तर देखिये.

आज उनके हैं चश्म तर देखिये
मेरी दीवानगी का असर देखिये.


©1996 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

शुक्रवार, 29 मई 2015

काश! मैं ऐसा कर पाती

काश !

ऐ काश! मैं ऐसा कर पाती
पंख  फैलाती  उङ  जाती

नील गगन की ऊँचाईयों में
हिम सागर की गहराईयों में
अपने मन के उल्लासों का
जग में कलरव कर पाती

तिनका तिनका घास उठाये
मधु का मन में आस लगाये
जगमग चुँधियाती आखों से 
गर परिहास जो कर पाती

पँख  फैलाती  उङ  जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

गैरों  से  घबराती सी
अपनों से  शर्माती सी
मेरे  मधुतम  गीतों से
नींद तुम्हारी छिन जाती

अपने पे  इठलाती सी
सत्य को झुठलाती सी
दूर-सुदूर पवन से आगे
खुश्बू बन-बन उङ पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

अपने भी हो पराये भी
तजे हुये अपनाये भी
अनजाने प्रिय समक्ष तुम्हारे
प्रणय निवेदन कर पाती

अपनों में सपनों में तुम
सीने की तपनों में तुम
याद सदा ही करती हूँ
पर आँहें नहीं भर पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

अनदेखा अनजाना सा
है  कोई  पहचाना सा
होठों पे खामोशी लेकर
अब मैं चुप नहीं कर पाती

तब भी मैं पाँखों के बिन
उखङी हुई साँसों के बिन
दूर नजर तक उङती हूँ
पर राहें नहीं मुङ पाती

पँख फैलाती उङ जाती
काश ! मैं ऐसा कर पाती

पँख फैलाती उङ जाती
पास तुम्हारे आ जाती
दोनों के अरमानों का
भेद तुम्हें समझा पाती


काश ! मैं ऐसा कर पाती


©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

जिस राह हम चले थे

जिस राह हम चले थे वो जरकार है अब भी,
तुमको मेरी  चाहत पे  इख्तियार है अब भी.

हम थक चुके हैं चलके मंसूबों  के जोर पर,
मंजिल जो चाहिये थी वो दरकार है अब भी.

तेरे तगाफुल ने जिस राह को मायूस किया,
तेरा, उसके हर मोङ को इंतजार है अब भी.

तेरे जाने से  इस दिल  की बेचैनी ना गई,
इक धङकन सी सीने में बेकरार है अब भी.

झूठी तेरी बातें, तेरा वादा-ए-आमद मगर
हर भरोसे पे दिल ये बरकरार है अब भी.

सूखे पड़े ऐसे जमीं दिल की तड़क गई
आँखों के बरसने का इंतजार है अब भी.

कोई भी बारिश इस तन को भिगाती नहीं
दिल को किसी दूजे से इन्कार है अब भी.

लोकराज में से "राज " चटकार गए तुम
भूखा सारा "लोक" मेरी सरकार है अब भी.

©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

कुछ शेर

जिंदगी   की  तेज  रफ्तारी  में   बदहवास  सी
मनुजता को अब किसी के दर्द का अहसास नहीं.

सूरज  मुङ  जाता है  छूके  अब उजालों  की  हदें
किरणों को भी अंधेरों में चलने का अभ्यास नहीं

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अब भी  मेरे सीने में  इक  नन्हा  उजला दाग सा है,
बिखर चुके गुलशन के लिये आँखों में इक खाब सा है.

सब दूर पास के लोगों को बाहर से सुनहरा लगता है,
इस मन का घरौंदा अंदर से कोई देखे तो बर्बाद सा है.



रविंद्र  सिंह  मान

तन्हाई


तन्हाई

कितनी तन्हा
होती है रात
इसके अपने ही
अंधेरों- ऊजालों में
इसका अपना भी
साया साथ नहीं देता
और इतना ही
तन्हा मैं हूँ

                   ©1995 डॉ रविन्द्र सिंह मान
                          सर्वाधिकार सुरक्षित

मुहब्बत का नहीं तुम्हें यकीं


मेरी मुहब्बत का नहीं तुम्हें  यकीं फिर भी
लौट आया हूँ सारी दुनिया से यहीं फिर भी

साँझ के बाद से चलता हूँ मैं सहर के लिये
तमाम रात तू मिलता  नहीं कहीं फिर भी

है मेरी शक्ल भी और काम भी करता हूँ बहुत
क्यूँ मेरी जात पे जाना है लाजिमी फिर भी?

मेरे  हिस्से में आया  दश्त और यायावरी
तमाम उम्र चले मंजिल मिली नहीं फिर भी

वक्त की राह में तुम छूट गये पर अंत तलक
तेरी  उम्मीद  मेरी हमसफर रही फिर भी

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित