शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

कालेज के वो दिन



फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद
कितनी हलचल में है खामोश डगर इक अरसे बाद


तपती शामों में कॉलेज की सब उधेड़बुनें
सब सुना लेते थे मन की, कोई सुने न सुनें
उलझनें, हसरतें, उदासियाँ, बेचैन धुनें
कितनी शिद्दत से घुलती थीं कॉफी के मग में

काश आता हो वक्त लौट के, जाने के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

एक कुर्सी थी स्वागत में और कोने का संदूक
किसका मन बैठ के उठने का फिर होता था भला
अब भी सीने में धड़कतीं हैं वो शामें जिनमें
न भुलाने को है कुछ, याद भी करने को है क्या

आज भी कैद है उन कमरों की, जमाने के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

नाम होते हैं रिश्तों के या नाम के रिश्ते
वक्त इतना कभी इस फर्क पे जाया न किया
हमने देखा है भुला के भी कितने लोगों को
क्या करें याद जिसने खुद को भुलाने न दिया

बार-बार आता है तेरा नाम, तेरे नाम के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

कितनी हलचल में है खामोश डगर एक अरसे बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद


8 सितम्बर 2017

©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

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