मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

अव्वल दिल की बात लबों पर आई क्यों?


खेतों में भूखें फिर से उग आई क्यों?
संसद वाले समझें पीड़ पराई क्यों?

दिल का फिर से रोना-धोना बहुत हुआ,
फिर से तुमने भेजी ये तन्हाई क्यों?

पीछे पछताने से अब होगा भी क्या?
अव्वल दिल की बात लबों पे आई क्यों?

इश्क, मुहब्बत, प्यार, वफ़ा, वादे, नाते
यार! सुनेगा ये सब वो हरजाई क्यों?

पहले  तो गर्दन से सिर कटवा डाला,
फिर मेरी खातिर माला बनवाई क्यों?

आजादी के दौर में इतनी जंजीरें,
काजी जी, महिलाओं को पहनाई क्यों?


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

भूल के सब कुछ उन्हीं के फिर दीवाने हो गये

उल्फ़तों के दौर भी गुजरे जमाने हो गये
आप क्या रूठे, सभी हम से बगाने हो गये

दिल गुजरते वक्त में खिलते गये हैं और भी
चेहरे घिस घिस के मगर बेहद पुराने हो गये

मुद्दतों के बाद आये वो हमारे दर औ हम 
भूल के सब रंजिशें फिर से दिवाने हो गये

मातमों की भीड़ , आखिर हौंसला दिल का बनी
शुक्र तन्हा दिल में कुछ तो आशियाने हो गये

नफ़रतों से पुर मगर , ज़ाहिर तकल्लुफ इश्क का
मेरे मर जाने को याँ, कितने बहाने हो गये

आपकी आँखों की जानिब झूमते आते हैं सब
गो यही दिल में उतरने के ठिकाने हो गये

भूख से बिकने-बिकाने को कोई तैयार जब
सोचिये इंसान भी दो-चार आने हो गये

चल दिये मक्तल को हाथों में लिये अपना कफ़न
बस्तियाँ इस शहर की तो, भूतखाने हो गये


©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

आज मुश्किल है दिल बचा रखना


चाहतें दिल में इंतिहा रखना
पर लबों को जरा सिला रखना

बात करना मगर अदा रखना
औ दिलों में भी फासला रखना

फर्क रखना न राब्ता रखना
इस तरीके से दिल लगा रखना

चाहतें दिल में इंतिहा रखना
पर लबों को जरा सिला रखना

बात करना मगर अदा रखना
औ दिलों में भी फासला रखना

फर्क रखना न राब्ता रखना
इस तरीके से दिल लगा रखना

सीखकर आ गये कहाँ से तुम
हर किसी से ये वायदा रखना

जब जमाना ही हो गया पत्थर
पत्थरों में न फिर खुदा रखना

इश्क करना अगर खुदाओं से
किस्मतों से न फिर गिला रखना

जिस नजाकत से बात करते हो
आज मुश्किल है दिल बचा रखना

ये सियासत का तौर ठीक नहीं
हर किसी को डरा-डरा रखना



डॉ रविंद्र सिंह मान

कालेज के वो दिन



फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद
कितनी हलचल में है खामोश डगर इक अरसे बाद


तपती शामों में कॉलेज की सब उधेड़बुनें
सब सुना लेते थे मन की, कोई सुने न सुनें
उलझनें, हसरतें, उदासियाँ, बेचैन धुनें
कितनी शिद्दत से घुलती थीं कॉफी के मग में

काश आता हो वक्त लौट के, जाने के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

एक कुर्सी थी स्वागत में और कोने का संदूक
किसका मन बैठ के उठने का फिर होता था भला
अब भी सीने में धड़कतीं हैं वो शामें जिनमें
न भुलाने को है कुछ, याद भी करने को है क्या

आज भी कैद है उन कमरों की, जमाने के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

नाम होते हैं रिश्तों के या नाम के रिश्ते
वक्त इतना कभी इस फर्क पे जाया न किया
हमने देखा है भुला के भी कितने लोगों को
क्या करें याद जिसने खुद को भुलाने न दिया

बार-बार आता है तेरा नाम, तेरे नाम के बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद

कितनी हलचल में है खामोश डगर एक अरसे बाद
फिर से आई है बहुत याद तेरी इक अरसे बाद


8 सितम्बर 2017

©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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