रविवार, 15 सितंबर 2024

इस हाल में हम दीवानों से तुम कहते हो खामोश रहो



जब झूठ के ताबेदारों की ज़हराब  आवाज़ों के डर से

सच बोलने वाले चुप्प हुए सब इन मक्कारों के डर से

जब धर्म किसी कातिल के हाथों में खंजर की धार बनें

हर ओर सियासत के नारे, हत्याओं के हथियार बनें


इस हाल में हम दीवानों से तुम कहते हो खामोश रहो


गाय के बहाने लोगों की जब लाश बिछाई जाने लगे

और हत्यारों की गर्दन में माला पहनाई जाने लगे

इंसाफ़ के मंदिर चुप्पी साधे इधर उधर को तकते हों

और बेकसूर इंसाफ़ तो क्या जब ख़ुद जेलों में सड़ते हों


इस हाल में हम दीवानों से तुम कहते हो खामोश रहो



हर गांव की हर इक बस्ती की उम्मीदों में लाचारी हो

और पढ़े लिखे हर हाथ की क़िस्मत में बस बेरोजगारी हो

तिस पे नित बढ़ती महंगाई सबको ठेंगा दिखलाने लगे

मसनद पे बिठाया था जिसको, सबको औकात बताने लगे



इस हाल में हम दीवानों से तुम कहते हो खामोश रहो


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान



गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

गम से लबरेज मवाली नहीं होने पाए

 गम से  लबरेज मवाली नहीं होने पाए 

मैकदे में भी बवाली  नहीं होने पाए 


हम अना छोड़ कई बार उधर से गुजरे 

सिर कटा के भी सवाली नहीं होने पाए 


आंख दरिया थे कि बहते ही चले जाते थे

दिल समंदर थे कि खाली नहीं होने पाए


जिस मरासिम के भरोसे पे जिए हैं, उसकी 

सबने चाहा कि बहाली नहीं होने पाए


आंधियों पर भी कई बार यकीं  कर देखा  

फिर भी  सहरा के अहाली नहीं होने पाए


हमने देखा है चरागों की तरह जल कर भी

पर किसी घर की दिवाली नहीं होने पाए


लाख दुनिया के तकाज़े  ये मगर  लफ्ज़ मेरे

सिर्फ शेरों में ढले गाली नहीं होने पाए


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान

उन निगाहों को खाब कर बैठे


उन निगाहों को खाब कर बैठे

इश्क में इंकलाब कर बैठे


जाने क्या गैर से कहा उसने

हम मगर दिल खराब कर बैठे


इक ज़रा सी नहीं पे रो रो के

एक सहरा चिनाब कर बैठे


उलझनें और भी बढ़ीं मिलकर

और मिलने की ताब कर बैठे


इश्क में बेहिसाब खोकर सब 

इश्क फिर बेहिसाब कर बैठे


याद के नातमाम मंज़र में

एक लम्हे को बाब कर बैठे


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान


रविंद्र सिंह मान

शनिवार, 27 जनवरी 2024

उस से सहमत सब से सहमत कैसे हो

उसके जैसी सब से मुहब्बत कैसे हो

उस से सहमत सब से सहमत कैसे हो


ख़ाब में उसको देखने वाले ने सोचा

ख़ाबों सा ये ख़ाब हकीकत कैसे हो


पलटा, आंख उठाई, थोड़ा मुस्काया

हश्र से पहले और क़यामत कैसे हो


उसकी आँखें पढ़ते पढ़ते सीख गया

एक ख़ुदा पर पूरी अक़ीदत कैसे हो


फूल खिला के कांटों में सोचा हर बार

जाने इन कांटों से  निस्बत कैसे हो


हिज्र की शब हम तेरे पहलू आ बैठे

इस उलझन में हम से हिजरत कैसे हो


बड़े जतन से हक़मारी की फिर सोचा

अब इस काम में और भी बरकत कैसे हो


रूहों तक तो ख़ुद को उधेड़ लिया हमने

कुछ तो बताओ तुम से मुहब्बत कैसे हो


दुनिया चांदी चांदी, सोना सोना है

हाथ पे रक्खे दिल की हिफ़ाज़त कैसे हो


शोर मचाते उठ आए  दीवाने लोग

मयखाने में रोज़ इजाज़त कैसे हो


हंसते हंसते अब तो रो पड़ते हैं हम

रो देने वालों से बगावत कैसे हो


लोहा तो लोहे से कट भी सकता है

कम लेकिन नफरत से नफरत कैसे हो


चेहरे-मोहरों तक सीमित इस जंगल में 

एहसासों की बोल हुकूमत कैसे हो


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

उसने साथ निभा देने का वादा नहीं किया


उसने  साथ निभा देने का वादा नहीं किया

हमने भी उल्फत का कोई इरादा  नहीं किया


पलकों पर रक्खा था सारे आंसू खारिज़ थे

दिल की धड़कन था पैकर का लिबादा नहीं किया


जिस जिस से मिलवाया खासम-खास कहा उसको

शायद ये गलती  थी उसको सादा नहीं किया


जो तरकीबें थीं कहने , सुनने, और चुप रहने की

सबको दूना बरता एक से आधा नहीं किया


ऐसा नहीं अब जां देने की नौबत आन पड़े

प्यार किया हमने पर इतना  ज्यादा नहीं किया


आज की धुंध  में बात वफ़ा की क्यों कीजे, और किससे 

सूरज ने भी शाम से कल कोई वादा नहीं किया


©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान