ज़िंदगी इस क़दर आसान रही
याँ हथेली पे सबके जान रही
डॉ रविंद्र सिंह मान
1.
गालियाँ
कविता होती हैं
जब वे
क्रोध में नहीं
विरोध में दी जाती हैं.
2.
कविताएँ
गालियाँ होती हैं
जब वे
विचार नहीं
व्यक्ति के
विरोध में
कही जाती हैं.
3.
गालियों में
भटकते शब्द
कविता तराश सकते हैं.
ये
लहज़े, लिहाज़,
लफ़्फ़ाजी के
संतुलन का
मामला है
©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सड़क पर भीड़ थी
मैं रुका रहा
देखता रहा दौड़ते सबको
आगे निकलते, पीछे छोड़ते सबको
सब वहाँ पहुँचना चाहते थे
जहाँ से और आगे के रास्ते थे
रास्तों को लाँघते, समय को ठेलते
देखता रहा सबको, स्वंय को धकेलते
दौड़ को उत्सुक क़दमों को रोक थोड़ा
किंचित चेतन ने अवचेतन को झँझोड़ा
स्वयं ने स्वयं को रोका
मैं रुका रहा
देखता रहा भीड़ में
स्वयं को अकेले
कैसे दौड़ते होंगे बुद्ध
बुद्ध होने से पहले
©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान