रविवार, 15 नवंबर 2020


ज़िंदगी इस क़दर आसान रही

याँ  हथेली पे  सबके जान रही


डॉ रविंद्र सिंह मान

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

गाली और कविता

 

1.


गालियाँ 

कविता होती हैं

जब वे

क्रोध में नहीं

विरोध में दी जाती हैं.


2.


कविताएँ

गालियाँ होती हैं

जब वे 

विचार नहीं

व्यक्ति के 

विरोध में 

कही जाती हैं.


3.


गालियों में

भटकते शब्द

कविता तराश सकते हैं.

ये

लहज़े, लिहाज़,

लफ़्फ़ाजी के

संतुलन का

मामला  है



©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

बुद्ध होने से पहले

 

सड़क पर भीड़ थी

मैं रुका रहा

देखता रहा दौड़ते सबको

आगे निकलते, पीछे छोड़ते सबको


सब वहाँ पहुँचना चाहते थे

जहाँ से और आगे के रास्ते थे

रास्तों को लाँघते, समय को ठेलते

देखता रहा सबको, स्वंय को धकेलते


दौड़ को उत्सुक क़दमों को रोक थोड़ा

किंचित चेतन ने अवचेतन को झँझोड़ा

स्वयं ने स्वयं को रोका

मैं रुका रहा


देखता रहा भीड़ में

स्वयं को अकेले

कैसे दौड़ते होंगे बुद्ध

बुद्ध होने से पहले



©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान

सोमवार, 6 जुलाई 2020

तन्हाई



कितनी तन्हा
होती है रात
इसके
अपने ही
अँधेरों-उजालों में
इसका
अपना भी
साया साथ नहीं देता।

और
इतना ही
तन्हा मैं हूँ।

©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान


बुधवार, 1 जुलाई 2020

शेर

झूठी आस दिलाओ बहुत अँधेरा है
कोई  हाथ  बढ़ाओ बहुत अँधेरा है

©2020 डॉ रविंद्र सिंह मान

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

उसने रख दिया मुझे किधर बाक़ी


हर सफ़र के बाद भी सफ़र बाक़ी
ज़िंदगी है क्या कोई कसर बाक़ी

देख  लेती  है  उन्हें  देखे  बग़ैर
मेरी नज़रों में है वो नज़र बाक़ी

मैं भी उसमें इस तरह बाक़ी रहूँ
बाँसुरी में जिस तरह शज़र बाक़ी

इन लबों पे रखके अपनी तिश्नगी
उसने रख दिया मुझे किधर बाक़ी

दोस्ती, न दिलबरी, न दिल्लगी
दुश्मनी सी है, कहीं अगर बाक़ी

रात-दिन दिल को सुकूँ की है तलाश
है अभी कुछ जिंदगी मग़र बाक़ी


©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान

सोमवार, 16 मार्च 2020

वक़्त करता है ज़ुल्म स्याही पर


इक़ ग़ज़ल ज़ुल्म पर, तबाही पर
लोकराजों  में  राजशाही  पर

मुंसिफों का इमान कायम है
हुक्मरानों की वाह-वाही पर

शहर क्या, देश ही मिरा चुप है 
वारदातों की हर गवाही पर

नासमझ है, न कुछ समझता है
दिल मुक़र्रर है फ़िर कुताही पर

किस तरह होश बरक़रार रहे
उन निग़ाहों की कम-निग़ाही पर

चाँद रातें, सहर, बहार के दिन
चुप रहे अपनी बेगुनाही पर

दोष नगमा-निग़ार को क्या दें
वक्त करता है ज़ुल्म स्याही पर

©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान


बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

शहर की आग को तुमने आज गुलाब लिखा है



नदी में बहते खून को अक्सर आब लिखा है
शहर की आग को तुमने आज गुलाब लिखा है

आग लगाकर गलियों-गलियों, सत्ताओं ने
सच हों जिसकी ताबीरें वो ख़ाब लिखा है

देश, धर्म की बहस में रहने वालो, तुमको
शायर ने एक सड़ती हुई शराब लिखा है

माना तुम में आग लगाने की हिकमत है
हमने जलते घर पर एक क़िताब लिखा है

मीनारों  पर  केसरिया  लहराने  वालो
तुमको वक़्त ने क़ातिल का अहबाब लिखा है


©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान