बुधवार, 26 दिसंबर 2018

हर कोई लगता है अब देखा हुआ



जो रहा खुद आप में सिमटा हुआ
वो जहां में आज तक किसका हुआ

जिससे पूछो बस यही शिक़वा उसे
दिल लगाने में बड़ा हर्जा हुआ

बस्तियाँ उजड़ी हैं जैसे गाँव की
दिल का भी अपने यही किस्सा हुआ

रात भर कुछ बेक़रारी सी रही
ख़ाब में था चाँद भी बिखरा हुआ

वो चला जायेगा इक़ दिन बेवज़ह,
डर यही था, आखिरत सच्चा हुआ

आपको देखा तो इत्मीनान है
हर कोई लगता है अब देखा हुआ

कुछ तो आती थी उसे जादूगरी
जो मिला उससे, वही उसका हुआ

सोचता हूँ अलविदा के वक़्त भी
इश्क़ का क्यूँ खामखां चर्चा हुआ

बागवाँ है या कोई सय्याद है
हर परिंदा है डरा-सहमा हुआ

अब यकीं आए किसी पर, किस तरह
वो मिरा हो कर नहीं मेरा हुआ


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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शनिवार, 22 दिसंबर 2018

क्या करूँ



जब सितम करना ही हो उन की इनायत, क्या करूँ
दिल दिया, तो जान लेने की शिकायत क्या करूँ

रोज़ दिलवाता तो होगा उसको सूरज मेरी याद
भूलने की हो किसी को ग़रचे आदत, क्या करूँ

खूबसूरत हो गई है शाम उनके नाम से
रात भर होगी तसव्वुर की अज़ीयत क्या करूँ

ख़ाब में देखा है दिल ने जब से उसको, आज तक
माँगता है रात-दिन उसकी रफ़ाक़त, क्या करुँ

मैं चला था मंजिलों के वास्ते, पर राह में
हो गई राहों से ही मुझको मुहब्बत क्या करूँ

दिख रहा है अक्स उसका अपने चिहरे की जगह
आइना भी कर रहा है अब सियासत, क्या करूँ

मौसमों की बेरुखी के बाद भी खिल जाए गुल
इस नफ़ासत से करे कोई बग़ावत, क्या करूँ

जब मिरा क़ातिल ही, मुंसिफ़ तय किया है आपने
मेरे हक़ में फ़ैसले की फिर वकालत क्या करूँ

काफ़िये, मिसरे, रदीफों ने किया मुझको तबाह
शायरी की मुझको ऐसी हो गई लत क्या करूँ

दाग दिल के चेहरों पर दिख ने लगे हैं हर तरफ़  
उस क़यामत से है पहले, यह क़यामत क्या करूँ

कुछ तुजुर्बे हार के और कुछ हसीनाओं के खत
मुख्तसर सी इस खजाने की है दौलत, क्या करूँ

ग़ैर की बाहों में भूले से मिरा लेता है नाम
अब उसे मुझसे है गर इतनी मुहब्बत क्या करूँ

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

ऐसा भी हो सकता है


भूख-बेकारी, इक़ नारा हो, ऐसा भी हो सकता है
"सबकी तरक्क़ी" बस वादा हो, ऐसा भी हो सकता है

तुम मंदिर-मस्ज़िद बाँटो हो, पर इस देश के लोगों ने,
रोटी, कपड़ा, घर चाहा हो, ऐसा भी हो सकता है

वो सच में दरवेश रहा हो, ऐसा भी हो सकता है
या फिर काफ़िर मुझ जैसा हो, ऐसा भी हो सकता है

मंदिर-मस्जिद तोड़ने वालो, बैठो, बैठ के सोचो तो
जो ईश्वर है वही खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है

जान बचाने का कहकर ही, काट रहा है डॉक्टर पेट
लालच उस को काट रहा हो, ऐसा भी हो सकता है

लिए कुदालें, हँसिये, जो सदियों से खोद रहा धरती
वही जहाँ का असल खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है

दस्तक़ सुन कर मैं भी चौंका, और दिल भी मुँह को आया
दरवाज़े पर सिर्फ़ हवा हो, ऐसा भी हो सकता है

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

ऐसा भी हो सकता है


भूख-बेकारी, इक़ नारा हो, ऐसा भी हो सकता है
"सबकी तरक्क़ी" बस वादा हो, ऐसा भी हो सकता है

तुम मंदिर-मस्ज़िद बाँटो हो, पर इस देश के लोगों ने,
रोटी, कपड़ा, घर चाहा हो, ऐसा भी हो सकता है

वो सच में दरवेश रहा हो, ऐसा भी हो सकता है
या फिर काफ़िर मुझ जैसा हो, ऐसा भी हो सकता है

मंदिर-मस्जिद तोड़ने वालो, बैठो, बैठ के सोचो तो
जो ईश्वर है वही खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है

लिए कुदालें, हँसिये, जो सदियों से खोद रहा धरती
वही जहाँ का असल खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है

दस्तक़ सुन कर मैं भी चौंका, और दिल भी मुँह को आया
दरवाज़े पर सिर्फ़ हवा हो, ऐसा भी हो सकता है

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

है तुम्हें इस बात पर इतनी हैरानी किस लिए



जब हक़ीकत दुखभरी हो शादमानी किस लिए
सच छुपाना ठीक, पर झूठी कहानी किस लिए

रोज़ ही जीने की खातिर मर रहा हूँ आज़कल
जिंदगी है तू मिरी दुश्मन पुरानी किस लिए

नम निगाहों पर मिरी भी, नाम क्यूँ तेरा नहीं
है तुम्हें इस बात पर इतनी हैरानी किस लिए

आप ही मैं तज़किरा करता हूँ अक्सर आप से
लाख उनसे दुश्मनी पर बदजुबानी किस लिए

जिंदगी दरिया थी, जिसमें इश्क के तूफान थे
वक़्त भी हम पर दिखाता मेह्रबानी किस लिए

साहिलों से सीख देते दोस्तों को क्या कहें
क्या छुपा है दिल के अंदर, बेजुबानी किस लिए

ख़ाक हो जाने हैं आख़िर, जब सितारे अर्श के
जिंदगी होती है फिर इतनी सुहानी किस लिए

अब अगर तुमको पलट कर देखने से है गुरेज़
लौट कर मुझ पे भी फिर आये जवानी किस लिए

याद आयेगी कभी तो, लौट आएगा वो शख्स
बस इसी उम्मीद पर है जिंदगानी किस लिए

यार की तौहीन से बढ़कर नहीं तौहीन कुछ

ये भी है मंजूर तो फिर सरगिरानी किस लिए



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान



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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

जमाना इन हदों पर आ खड़ा है

ज़माना इन हदों पर आ खड़ा है
मुहब्बत का तमाशा चाहता है

न तड़पाए मुझे जो मिहरबां है
कि अजमाए अगर वो बदगुमां है

उसे शिक़वा मिरे इसरार पे है
मुझे शक है कि झूठा सब गिला है

मैं उसका मर्ज़ ढूंढे जा रहा हूँ
वो अपना दिल दिखाना चाहता है

सभी इस बात पे राजी हैं तुझपे
हसीं तो है अगरचे बेवफ़ा है

खुशी की अब खुशी कितनी मनायें
गमों से भी हमारा सिलसिला है

खफ़ा है मौसमों सा वो भी हमसे
मुझे भी इल्म है मेरी खता है

निगाहें तो मुहाने हैं दिलों के
यहीं दरिया समंदर से मिला है

वतन में आज भी लाखों के घर में
जमीं बिस्तर, छतों पर आसमाँ है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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कभी तुझे भी बताऊँ कि कैसी चाहत है



जहाँ तो जान चुका मुझ को तेरी आदत है
कभी तुझे भी बताऊँ कि कैसी चाहत है

मुझी से पूछ रहे हो वफ़ा के अर्थ, कहो
कि इश्क़ तुम जिसे कहते हो वो सियासत है

किसी ने संग गिराये, ज़हर किसी ने दिया
वो फूल तुमने जो फेंके, वही अदावत है

ख़ुदा ने इश्क़ बनाया, जहाँ ने ज़ख्म दिये
दिलों ने कुफ़्र कमाया, यही बग़ावत है

वो चाहता है, नहीं मानता मग़र फिर भी
यही ज़ुल्मत है वज़ाहत है औ कयामत है

रहे न घर के न बाहर के, दैर के, फिर भी
ये किस तरह से बताते हो सब सलामत है

तुझी से तुझ को चुरालूँ, दिलों में जड़वा लूँ
मैं तुम से पूछ रहा हूँ कि क्या इजाज़त है

गुनाह बाद जो तस्लीम भी करे उसकी
है इश्क़ जुर्म वो जिसमें कि ये रिवायत है

मुझे कहा कि मिलो तुम कभी तन्हाई में
ये उसका मुझ पे करम है कि कुछ हिदायत है

चले तो हम भी लेके कारवाँ चिरागों का
हयात-ए- तीरगी तूफ़ान की इनायत है

किसी को चाँद, किसी को उफ़क से इश्क़ रहे
हमें तो अब भी मग़र आपकी जरूरत है

किसी ने फिर से अगर दिल के दर पे दस्तक दी
मिरा जबाव रहेगा, कि फिर स्वागत है

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा



तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा कि कैसे सब कुछ बदल रहा है
शबों की ठंडक सुलग उठी है, दिनों का पारा पिघल रहा है

कभी बहारों से मिलके नाचे, कभी पहाड़ों पे चढ़के बरसे
चुनांचे अपना तमाम क़िस्सा, खुमारियों का शग़ल रहा है

अगर तुम्हारी अदा रही है, कसक दिलों को सदा रही है, 
गुलाब होठों की इक़ छुअन को बदन सर-ओ-पा मचल रहा है

उदासियों के उदास चिहरे, कहीं से फीके, कहीं पे गहरे
न जाने फ़िर क्यूँ, उदासियों का हमारे घर में दख़ल रहा है

सवाल उसके जबाव मेरे, उलझ गया था वहाँ सभी कुछ
वो वक़्त जिसमें विदा लिखी थी, अभी भी दिल में उबल रहा है

बदल तो सकते थे हाल अपने, मगर समय ने दिया न मौका
समय से अपनी निभे भी कैसे, मैं रुक गया तो भी चल रहा है




©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

और अकड़ते देखा तब-तब संसद की दीवारों को


झुलसी मिट्टी, बंजर धरती, सूखे नदी किनारों को
बदला- बदला देख रहा हूँ मौसम के रुखसारों को

ढ़हते घर, टूटे दरवाजे, उजड़े गली- दालानों की
किसने रोक दिया है, गांव के बाहर सभी बहारों को

मेहनतकश को अभी तलक भी मोल नहीं मिल पाया ठीक
क्या माने हम लाल किले की सालाना हुंकारों को

भूख, बेकारी, लाचारी ने, जब भी हक की बात कही
और अकड़ते देखा तब- तब संसद की दीवारों को

इंसानों का भाव नहीं है, काम नहीं है हाथों को, 
आग लगाएँगे क्या ऐसे सजे हुए बाजारों को

बच्चों को नहीं शिक्षा- दीक्षा, दवा नहीं बीमारों को
रेवड़ियाँ बँट रही हैं लेकिन यहाँ इज़ारेदारों को

शोर-शराबा, खून- खराबा, चोरी- हत्या, लूट- डैकत
कैसे कोई पढ़ सकता है, रोज- रोज अखबारों को

पानी बाँटा, माटी बाँटी, धरती को तकसीम किया
कल तुम देखना, बाँटेंगे हम सूरज- चाँद- सितारों को

कुछ चिहरों पर तिलक लगा था, कुछ के सिर पर टोपी थी
अब जाकर पहचाना अल्लाह- ईश्वर के हत्यारों को

नफरत, हिंसा पर झूठे मातम करते नेता से पूछ
किसने इस गुलशन में बाँटा त्रिशूलों, तलवारों को

जाने कैसी आग लगी है, जाने कैसी हवा चली
सुन के परिंदे काँप रहे हैं, हिंदू- मुस्लिम नारों को


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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सोमवार, 10 सितंबर 2018

जब दिन आता है.......




गरज- बरस करते मेघा, बिजली रह-रह चमकाती है
टप्पर पर गिरती बारिश से आँख नहीं लग पाती है
रात उनींदी थके-पके, क्या- क्या सपने दिखलाती है

सहसा भीतर-भीतर कोई धड़का सा लग जाता है
और डरके जगते ही सामने गर सूरज दिख जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


किसी-किसी दिन साँझों से ही मनहूसी छा जाती है
रात तो जैसे और भी ज्यादा तन्हाई सुलगाती है
कमरे के कोने-कोने में नीरवता झुँझलाती है


खिड़की खोल के रोज सितारों से थोड़ा बतियाता हूँ
जिससे कल बातें की थीं लेकिन जब उसे न पाता हूँ
कहाँ गया वो आज सितारा सबसे पूछना चाहता हूँ


आखिरी पहर तलक भी लेकिन ये तय नहीं हो पाता है
जिससे भी मैं बात करूँ वो ही क्यूँकर खो जाता है
और फिर भीतर का अँधियारा चहुँ ओर इठलाता है

क्या बतलाएँ कैसा गहरा सन्नाटा छा जाता है
पर जब पूर्व आहिस्ता से लाल सुर्ख हो जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


लेकिन जीवन के रस्ते अनिश्चित, अप्रत्याशित हैं
जाने किन बातों से जुगनू रातों में उत्साहित हैं
जाने किस उम्मीद पे आँखें सपनों को लालायित हैं

ऐसे विकट पलों में मन कैसे आशा रख पाता है?
घुप्प अँधेरों में जब-जब कोई दीया जल जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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सोमवार, 27 अगस्त 2018

रुत बदली तो मैंने समझा बदलेंगे हालात मेरे

रुत बदली तो मैंने समझा बदलेंगे हालात मेरे
शायद वो आ जाएंगे, बन जाएंगे औकात मेरे

एक जरा सी बात पे रूठ के राहों से जाने वाले
तू क्या जाने तुझ-बिन कैसे गुजरे हैं दिन-रात मेरे

जीने की भरपूर तलब थी, जीना भी था उसके साथ
मुमकिन है वो जानता था, आँखों में लिखी हर बात मेरे

दोनों ने इकरार किया था, प्यार किया था दोनों ने
उसके हिस्से में गुल आये, आँसू की बरसात मेरे

एक जरा से दिल ने कैसे- कैसे ये तूफान सहे
चाहत, ख्वाहिश, तलब, बेचैनी और रिश्तों की घात मेरे

नाउम्मीदी में ये खुशफहमी भी हरदम साथ रही
मैं जब चाहूँगा रख देंगे वो हाथों में हात मेरे

नदी किनारे से पूछुंगा, क्या आये थे वापिस वो
जिनके पास रखे हैं सारी खुशियों के सौगात मेरे

नाकामी से कुछ सीखा, न किस्मत ने ही साथ दिया
खूब थपेड़े राह में खाये दिल ने यूँ अर्थात मेरे

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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बुधवार, 22 अगस्त 2018

इक दुनिया है जो सरल नहीं




इक ही उपवन के वृक्ष सभी, पर पात- पात में अवकल है
इक दुनिया है जो सरल नहीं, इक जीवन है जो मुश्किल है

मौसम की धूप ने चिहरों पर अवसादों का रंग पोता है
यां ऐसा ही थोड़ा- थोड़ा, कुछ सबके साथ में होता है
लेकिन आशाओं के रथ जब, हुँकार उठाते रह- रह कर
उजास पहाड़ों से बहकर पानी सा बहता कल- कल है

इक दुनिया है जो सरल नहीं, इक जीवन है जो मुश्किल है


अंतर्मन के दर्पण पर कुछ, बनता है, और ढह जाता है
लेकिन कैनवास मिटा कर भी कुछ मिटा हुआ रह जाता है
ये गेसू हैं, ये आँखें हैं, ये होटों की गोलाई है
ये आँसू है, अट्टाहस है, या मेरे मन की अटकल है

इक दुनिया है जो सरल नहीं, इक जीवन है जो मुश्किल है

हर राह चुनौती देती है, हर राह उमंगें भरती है
लेकिन आशा न जाने क्यूँ, हर बार मोड़ पर डरती है
जो चलता है, जो गिर- गिर कर उठने की कोशिश करता है
जो काल के भाल पे चढ़ता है, हर राह में उसकी मंजिल है

इक दुनिया है जो सरल नहीं, इक जीवन है जो मुश्किल है


रुकने वाले, हँफ़ने वाले, कितना सा रस्ता है बाकी
दिन ढलता है ढल जाने दे, हर रात के बाद सुबह आती
अँधेरों के अपनेपन को साँसों में कुछ घुल जाने दे
जलना- बुझना है क्षणिक मगर , अँधेरा शाश्वत- निश्चल है

इक दुनिया है जो सरल नहीं, इक जीवन है जो मुश्किल है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 7 जुलाई 2018

किसी ने ख़ाब दिखाये थे रहगुज़र के मुझे



खिले हैं चाँद- सितारे, सलाम कर के मुझे
तिरी निगाह ने देखा, निगाह भर के मुझे

कभी किसी से मुहब्बत जरूर की इसने
तभी तो रात दिखाती है सहर कर के मुझे

बहुत है तेज जमाना भी, जिंदगानी भी,
ऐ ग़म-ए-दिल तू कभी देख तो ठहर के मुझे

किसी भी ठौर न ठहरा, तमाम उम्र चला
किसी ने ख़ाब दिखाये थे रहगुज़र के मुझे

थकी- थकी है सहर, धूप खिल नहीं पाई
बड़ा उदास है सूरज, उदास कर के मुझे

गली-गली सी ये रातें, गमों भरे ये दिन
रुला रहे हैं ये सदमें किसी बशर के मुझे

किसी से हाथ मिलायें, रुकें किसी के लिये

सिखा न पाये यही फासले सफ़र के मुझे

वो मुस्कुरा के नई उलझनों में डाल गया
हिसाब जिससे चुकाने थे उम्र भर के मुझे

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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सोमवार, 18 जून 2018

कुछ ऐसे याद आते हो तुम



जब भी शामों को थका- थका सिर पर से सूरज ढलता है
और सँध्या की दस्तक देता जब पच्छम रंग बदलता है
जब- जब बादल के पीछे से पूनम का चाँद निकलता है
तुम फिर से याद आ जाते हो 

धरती की तपन जब रातों की ठंडक में सिहरने लगती है
चँदा से चकोरी मिलने को हर तौर बदलने लगती है
जब रात भी आखिर में रह- रह राहों सी मचलने लगती है
तुम फिर से याद आ जाते हो 

जब शहरों में रहते- रहते, वनवास की बातें होती हैं
तन- मन से भरे खाये- पिये, उपवास की बातें होती हैं
जब हाल से कोई खुश न हो इतिहास की बातें होती हैं
तुम फिर से याद आ जाते हो 

जब रोज दिनों की तह में से, इक दिन तेरे रंग सा चढ़ता है
जब रोज हवा के झुरमट में कोई तेरी खुश्बू भरता है
जब रोज दिशाओं से कोई तेरी ओर इशारा करता है
तुम फिर से याद आ जाते हो 

धरती के दूर किनारे पर, मैं तन्हाईयों से लड़ता हूँ
खुद अपने- आप से डरा- डरा, उन रुसवाईयों से लड़ता हूँ
हर रोज जुदा होकर खुद से, इन परछाईयों से लड़ता हूँ
और याद तुम्हें ही करता हूँ

सुन, आज भी दिल की गलियों में तेरे ही तराने बजते हैं
सुन, आज भी रात की पलकों पर बस खाब तेरे ही सजते हैं
सुन, आज भी, झुककर दीवाने, तेरे नाम पे सज्दे करते हैं
जब-जब भी याद आ जाते हो


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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शुक्रवार, 8 जून 2018

कोई गीत मुहब्बत वाला




कोई गीत मुहब्बत वाला गा सकते तो अच्छा था
जाते- जाते तुम थोड़ा मुस्का सकते तो अच्छा था

जाने कितनी उम्मीदों से तकते हैं दीवाने दिल
तुम भी इन नजरों से नजर मिला सकते तो अच्छा था

चोरी- चोरी रातों मुझसे पूछे उसके बारे में
अपने दिल से कोई बात छुपा सकते तो अच्छा था

जैसे मयख़ाने में भूले जाते हैं शिकवे सारे
हम भी बहके दिल को यूँ बहला सकते तो अच्छा था

वैसे हमको गया निकाला, जैसे जन्नत से आदम
तेरे दर हम लौट अगर फिर आ सकते तो अच्छा था

किसी बात पे बरबस रोते- रोते हँस देते हो ज्यूँ
हम भी दिल को कुछ ऐसा बतला सकते तो अच्छा था

जाने कैसे तुम जख्मों को  हिना बताए बैठे हो
हम भी कोई, दिन को रात बता सकते तो अच्छा था

चाँदी जैसे इस मौसम में निकली सोने जैसी धूप
ऐसे में गर तेरी याद बुझा सकते तो अच्छा था

तेरी यादें फिर- फिर हवा के ताजे झौंकों जैसी हैं
गो इनसे हम दिल के जख्म बचा सकते तो अच्छा था

अक्सर ही पूछा करता हूँ खुदसे, अपना साथी कौन
जुज अपने, तुमको अपना बतला सकते तो अच्छा था

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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गुरुवार, 17 मई 2018

रात दिन हम दिल को समझाते रहे



दर्द हर मौसम में उकसाते रहे
पतझडों के गीत बन गाते रहे

याद में वो झिलमिलाने सा लगा
ख़ाब में भी ख़ाब से आते रहे

एक लंबा सिलसिला था जिंदगी
हम जरा चलने में  घबराते रहे

यूँ तो मुस्तक़बिल खुला था सामने
हम ही पीछे लौट के जाते रहे

आप से मिल तो लिये, फिर उम्र भर
आपको ही हर जगह पाते रहे

उगते सूरज में तुम्हें देखा अगर
शाम ढ़लती में भी तुम आते रहे

इक दिलासा है कि कल के बाद भी
दिन उगेंगे तुम जो मुस्काते रहे

इश्क ने हमको दिया ये रोजगार
रात-दिन हम दिल को समझाते रहे

क्या बला की भीड़ थी उस राह में
जिसपे वो आते रहे, जाते रहे

सोजे- गम का कायदा रखना पड़ा
आह भरने में भी शर्माते रहे

इश्क है बस, अश्क़ तक का इक सफऱ
दिल के अरमाँ आँख तक आते रहे

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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बुधवार, 21 मार्च 2018

कवि


कवियों का 
समूह नहीं होता
न संगठन

कवि हमेशा
अकेला होता है

अकेले होना ही
असल में
कवि होना  है.


21 मार्च 2018

"विश्व कविता दिवस" के मौके पर


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान



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शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

छू के उसने मुझको पत्थर से नगीना कर दिया


आपने क्या खूब मिलने का ये वादा कर दिया
फिर उम्मीदों ने सभी मुर्दों को जिंदा कर दिया

इस मुहब्बत में हमारे गम तो दूने हो गये
और यादों ने तुम्हारी हमको आधा कर दिया

बन हकीकत फिर लिया हूँ, हर नगर, हर- हर गली
हर किसी ने मुझसे बचने का तकाजा कर दिया

सर्दियों में धूप ढ़लते ही हवा के शोर ने
सर्द शामों में छिपाकर और तन्हा कर दिया

हर शज़र पे फूल महकाने का जज़्बा था मगर
सानेहा की पतझडों ने मुझको नंगा कर दिया

चाहतें थीं, उल्फ़तें थीं, रंजिशों ने पर हमें
जिंदगी के वरक पर इक हाशिया सा कर दिया

मैं तो पत्थर था मुहब्बत के नगर की राह का
छू के उसने मुझको पत्थर से नगीना कर दिया

कल जरा सी बात पर रूठा रहा वो रात भर
मुख़्तसर थी वस्ल-ए-शब, उसको भी जाया कर दिया

रोज आलम पूछता था, मुझसे हर गम का सबब
आज इत्मीनान से तेरा खुलासा कर दिया

जो चला इस राह पर उसको फ़ना होना पड़ा
खुद को खोकर पर हक़-ए-उल्फ़त नुमाया कर दिया

आज गम कम था मग़र दिल ने हमेशा की तरह
याद उनको फिर से करने का इरादा कर दिया



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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रविवार, 11 फ़रवरी 2018

उल्फ़तों के मारों का दर्द भी न टलता है


गज़ल 


उल्फतों के मारों का दर्द भी न टलता है
चाँदनी के फाहों से रोज घाव जलता है


दिल भी इक जुआरी है, खुद ही दाँव चलता है
और हार के डर से भाग भी निकलता है


हूँ शमा मुहब्बत की, तुम बुझा तो दो, लेकिन
मैं दिया नहीं हूँ जो बुझ के फिर से जलता है


वो उदास शामें फ़िर, घिर के आई हैं दिल में
जिनमें दिल पे खुद का भी कुछ न जोर चलता है


मैं मजे में हूँ तब भी, तुझको याद करता हूँ
याद में तिरी फिर ये, खूब दिल मचलता है


गर पमाइशें दिल की नाप कर बता सकतीं
कौन दिल में रहता है , कौन यूँ उछलता है


 जिंदगी के सहरा में छाँव ढूंढ़ता हूँ मैं
और ख़ाब पेड़ों का साथ-साथ चलता है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

यूँ तो हर दर्द का बयाँ हम थे



यूँ तो हर दर्द का बयाँ हम थे
बात कुछ थी कि बेजुबाँ हम थे

जो निगाहें हुजूम-ए-यास रहीं
उन निगाहों का तर्जुमाँ हम थे

जब सफ़र में मुक़ाम नज़्र हुआ
सबकी नजरों में राएगाँ हम थे

हासिले-जिंदगी नहीं कुछ भी
दश्त-दर-दश्त इम्तिहाँ हम थे

दौर ऐसे भी दिल पे गुजरे हैं
हर्फ उनके थे औऱ जुबाँ हम थे

कुछ तो मजबूरियाँ भी थीं लेकिन
बेशतर यूँ ही बदगुमां हम थे

चल रही मेरे बाद भी दुनिया
मैंने समझा कि बादबाँ हम थे


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

कोई दिन जब जीने का मन नहीं होता



कोई दिन जब जीने का भी मन नहीं होता
अपनों में भी जैसे अपनापन नहीं होता

रेत के टीले सपनों में रह-रह आते हैं

दश्तों के संगीत ही तब मन को भाते हैं
आँगन में बहते जल बोझल हो जाते हैं
दूर सराबों में ही जब हम खो जाते हैं


रोज ही भाने वाला कोई उपवन नहीं होता

कोई दिन तो जीने का भी मन नहीं होता


चाक-चौबंद किये दामन भी चाक होते हैं

खुशियों के जंगल भी आखिर खाक होते हैं
 यूँ हम इस सूनेपन का  जश्न  मनाते हैं
दीवारों से मिलकर थोड़ा बतियाते हैं

किसी भी सूरत ये सन्नाटा कम नहीं होता

कभी-कभी तो जीने का भी मन नहीं होता


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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मंगलवार, 30 जनवरी 2018

कासगंज


कासगंज

आज वतन में हत्यारी  सत्ता फिर से सुशोभित है
कासगंज का जश्न मनाओ, ये उत्सव प्रायोजित है

जिन पेड़ों की शाख कटी है, रोंयेगे वे उम्र तमाम
लेकिन देख रहा हूँ नेताओं के चेहरे पर मुस्कान
भारत माँ की जय बोलेंगे, बस्ती में विष घोलेंगे
टुकड़े- टुकड़े करने की प्रतियोगिता आयोजित है

कासगंज का जश्न मनाओ ये उत्सव प्रायोजित है

सत्ताओं ने सदा ही खेला हत्याओं का खुल्ला खेल
दाँये, बाँये, खादी, भगवा, इनका जनता से क्या मेल
भूख, गरीबी, बेरोजगारी के प्रश्नों से बचने को
हिंदू- मुस्लिम, मंदिर- मस्ज़िद का किस्सा उदघोषित है

कासगंज का जश्न मनाओ, ये उत्सव प्रायोजित है

अफवाहों की तेज हवा ने शोलों को भड़काया है
जो जिंदा हैं उनको भी कल मरा हुआ बतलाया है
झूठ फैला कर, आग लगा कर, खुद ही शोर मचाया है
आज तिरंगा इनके ही कुकर्मों पर खुद क्रोधित है

कासगंज का जश्न मनाओ, ये उत्सव प्रायोजित है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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रविवार, 21 जनवरी 2018

सब आँखों में रहता हूँ मैं



दरियाओं सा बहता हूँ मैं
सब आँखों में रहता हूँ मैं

उजले चिहरे वालों के भी
मुँह पर काला टीका हूँ मैं

कल तक आँखों का तारा था 
अब आँखों का खटका हूँ मैं

सहराओं में जब्त हुआ हूँ
कतरा-कतरा रिसता हूँ मैं

मुझको साया कहनेवालो
हर सूरज का रस्ता हूँ मैं

सूखा हूँ हर गर्मी की रुत
हर बारिश में बरसा हूँ मैं

मुंडेरों पे राह दिखाता
खुद राहों को तरसा हूँ मैं

कुम्हारों के चाक पे घूमा
चाक-दिलों सा तड़पा हूँ मैं

उन के आँखों की खुशियाँ तो
इन के दिल का सदमा हूँ मैं

हाथों से आँखों को ढ़क कर
सहरा-सहरा भटका हूँ मैं

मुझको तन्हाई में सोचो
दिल का इक अफसाना हूँ मैं

बरबस मन में आने वाला
भूला- बिसरा गाना हूँ मैं

अव्वल-अव्वल मैं सब कुछ था
आखिर में बेगाना हूँ मैं

यादों के खँडहर का जैसे
टूटा सा तहखाना हूँ मैं

जाहिल, पागल, जो भी समझो
दीवाना- दीवाना हूँ मैं

खुल कर हँसने की कोशिश में
घुट-घुट बरसों रोया हूँ मैं

दिल को कोई दोष नहीं है
बस नजरों का धोखा हूँ मैं

बाहर जैसा ही दरिया हूँ
भीतर-भीतर बहता हूँ मैं

ग़म को साथी मान लिया है
अब तन्हा नहीं  रहता हूँ मैं



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

पुराना साल, नये साल से


पुराना साल, नये साल से


आने वाले की दस्तक, जाने वाले के दर पे
असमंजस के मौसम में, कोई तो होगा घर पे


बर्फ बिछी है रातों पर, कोहरा छाया है दिन पर
रिश्तों में है ठंड बहुत, नातों में धोखे परस्पर
प्रेम है इक मुरझाया फूल,जिसपे रंग हैं सदमों के
मायूसी की राहों पर, बोझल पाँव हैं कदमों के

ऐसी मुश्किल हालत में नया साल आया फिर से
आने वाले दे दस्तक, जाने वाले के दर पे


मीठे-मीठे गम के गीत, खुशियों के दर बंद सभी
सन्नाटों के सुन संगीत, बहरे हो गये लोग सभी
आते-आते लेता आ, हँसते-मुस्काते चेहरे
कुछ फूलों वाले मौसम, कुछ गाने गाते सेहरे

ऐसा ला कुछ यार नये, चिहरे खिल जायें सबके
आने वाले की दस्तक, जाने वाले के दर पे


आने वाले आ रो लें, नाचें, गायें, गले मिलें
मेरे गम की फिक्र न करें, तेरी उम्मीदें जी लें
मुझसा तू भी अगले साल, क्या यूँ होगा थका-थका?
नये साल से मिलने को  होगा बेहद संजीदा?

आज मगर तेरी उम्मीदों, उत्साहों पे जाँ सदके
जाते-जाते मैं खुश हूँ, आने वाले के कद पे


आने वाले दस्तक दे, जाने वाले के दर पे
बेचैनी के मौसम में, कोई तो होगा घर पे

31 दिसम्बर 2017

©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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