शनिवार, 7 जुलाई 2018

किसी ने ख़ाब दिखाये थे रहगुज़र के मुझे



खिले हैं चाँद- सितारे, सलाम कर के मुझे
तिरी निगाह ने देखा, निगाह भर के मुझे

कभी किसी से मुहब्बत जरूर की इसने
तभी तो रात दिखाती है सहर कर के मुझे

बहुत है तेज जमाना भी, जिंदगानी भी,
ऐ ग़म-ए-दिल तू कभी देख तो ठहर के मुझे

किसी भी ठौर न ठहरा, तमाम उम्र चला
किसी ने ख़ाब दिखाये थे रहगुज़र के मुझे

थकी- थकी है सहर, धूप खिल नहीं पाई
बड़ा उदास है सूरज, उदास कर के मुझे

गली-गली सी ये रातें, गमों भरे ये दिन
रुला रहे हैं ये सदमें किसी बशर के मुझे

किसी से हाथ मिलायें, रुकें किसी के लिये

सिखा न पाये यही फासले सफ़र के मुझे

वो मुस्कुरा के नई उलझनों में डाल गया
हिसाब जिससे चुकाने थे उम्र भर के मुझे

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें