रोग बन के रह गया है प्यार तेरे शहर का
हर मसीहा दिख रहा बीमार तेरे शहर का
इसकी गलियां मेरी सब चढ़ती जवानी खा गईं
क्यूं नहीं करता रहूं सत्कार तेरे शहर का
शहर तेरे कद्र लोगों को न सच्चे प्यार की
रात को खुलता है हर बाजार तेरे शहर का
अब तो मंजिल के लिए इक पैर भी उठता नहीं
चुभ गया कुछ इस तरह से खार तेरे शहर का
इक कफ़न भी बाद मरने के नहीं होता नसीब
कौन पागल फिर करे इतबार तेरे शहर का
यहां मेरी लाश तक नीलाम कर डाली गई
पर नहीं उतरा है कर्जा यार तेरे शहर का
पंजाबी में ग़ज़ल शिव कुमार बटालवी
हिंदी अनुवाद मेरा है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें