गम से लबरेज मवाली नहीं होने पाए
मैकदे में भी बवाली नहीं होने पाए
हम अना छोड़ कई बार उधर से गुजरे
सिर कटा के भी सवाली नहीं होने पाए
आंख दरिया थे कि बहते ही चले जाते थे
दिल समंदर थे कि खाली नहीं होने पाए
जिस मरासिम के भरोसे पे जिए हैं, उसकी
सबने चाहा कि बहाली नहीं होने पाए
आंधियों पर भी कई बार यकीं कर देखा
फिर भी सहरा के अहाली नहीं होने पाए
हमने देखा है चरागों की तरह जल कर भी
पर किसी घर की दिवाली नहीं होने पाए
लाख दुनिया के तकाज़े ये मगर लफ्ज़ मेरे
सिर्फ शेरों में ढले गाली नहीं होने पाए
©2024 डॉ रविंद्र सिंह मान