गुरुवार, 29 नवंबर 2018

है तुम्हें इस बात पर इतनी हैरानी किस लिए



जब हक़ीकत दुखभरी हो शादमानी किस लिए
सच छुपाना ठीक, पर झूठी कहानी किस लिए

रोज़ ही जीने की खातिर मर रहा हूँ आज़कल
जिंदगी है तू मिरी दुश्मन पुरानी किस लिए

नम निगाहों पर मिरी भी, नाम क्यूँ तेरा नहीं
है तुम्हें इस बात पर इतनी हैरानी किस लिए

आप ही मैं तज़किरा करता हूँ अक्सर आप से
लाख उनसे दुश्मनी पर बदजुबानी किस लिए

जिंदगी दरिया थी, जिसमें इश्क के तूफान थे
वक़्त भी हम पर दिखाता मेह्रबानी किस लिए

साहिलों से सीख देते दोस्तों को क्या कहें
क्या छुपा है दिल के अंदर, बेजुबानी किस लिए

ख़ाक हो जाने हैं आख़िर, जब सितारे अर्श के
जिंदगी होती है फिर इतनी सुहानी किस लिए

अब अगर तुमको पलट कर देखने से है गुरेज़
लौट कर मुझ पे भी फिर आये जवानी किस लिए

याद आयेगी कभी तो, लौट आएगा वो शख्स
बस इसी उम्मीद पर है जिंदगानी किस लिए

यार की तौहीन से बढ़कर नहीं तौहीन कुछ

ये भी है मंजूर तो फिर सरगिरानी किस लिए



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान



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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

जमाना इन हदों पर आ खड़ा है

ज़माना इन हदों पर आ खड़ा है
मुहब्बत का तमाशा चाहता है

न तड़पाए मुझे जो मिहरबां है
कि अजमाए अगर वो बदगुमां है

उसे शिक़वा मिरे इसरार पे है
मुझे शक है कि झूठा सब गिला है

मैं उसका मर्ज़ ढूंढे जा रहा हूँ
वो अपना दिल दिखाना चाहता है

सभी इस बात पे राजी हैं तुझपे
हसीं तो है अगरचे बेवफ़ा है

खुशी की अब खुशी कितनी मनायें
गमों से भी हमारा सिलसिला है

खफ़ा है मौसमों सा वो भी हमसे
मुझे भी इल्म है मेरी खता है

निगाहें तो मुहाने हैं दिलों के
यहीं दरिया समंदर से मिला है

वतन में आज भी लाखों के घर में
जमीं बिस्तर, छतों पर आसमाँ है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान


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कभी तुझे भी बताऊँ कि कैसी चाहत है



जहाँ तो जान चुका मुझ को तेरी आदत है
कभी तुझे भी बताऊँ कि कैसी चाहत है

मुझी से पूछ रहे हो वफ़ा के अर्थ, कहो
कि इश्क़ तुम जिसे कहते हो वो सियासत है

किसी ने संग गिराये, ज़हर किसी ने दिया
वो फूल तुमने जो फेंके, वही अदावत है

ख़ुदा ने इश्क़ बनाया, जहाँ ने ज़ख्म दिये
दिलों ने कुफ़्र कमाया, यही बग़ावत है

वो चाहता है, नहीं मानता मग़र फिर भी
यही ज़ुल्मत है वज़ाहत है औ कयामत है

रहे न घर के न बाहर के, दैर के, फिर भी
ये किस तरह से बताते हो सब सलामत है

तुझी से तुझ को चुरालूँ, दिलों में जड़वा लूँ
मैं तुम से पूछ रहा हूँ कि क्या इजाज़त है

गुनाह बाद जो तस्लीम भी करे उसकी
है इश्क़ जुर्म वो जिसमें कि ये रिवायत है

मुझे कहा कि मिलो तुम कभी तन्हाई में
ये उसका मुझ पे करम है कि कुछ हिदायत है

चले तो हम भी लेके कारवाँ चिरागों का
हयात-ए- तीरगी तूफ़ान की इनायत है

किसी को चाँद, किसी को उफ़क से इश्क़ रहे
हमें तो अब भी मग़र आपकी जरूरत है

किसी ने फिर से अगर दिल के दर पे दस्तक दी
मिरा जबाव रहेगा, कि फिर स्वागत है

©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा



तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा कि कैसे सब कुछ बदल रहा है
शबों की ठंडक सुलग उठी है, दिनों का पारा पिघल रहा है

कभी बहारों से मिलके नाचे, कभी पहाड़ों पे चढ़के बरसे
चुनांचे अपना तमाम क़िस्सा, खुमारियों का शग़ल रहा है

अगर तुम्हारी अदा रही है, कसक दिलों को सदा रही है, 
गुलाब होठों की इक़ छुअन को बदन सर-ओ-पा मचल रहा है

उदासियों के उदास चिहरे, कहीं से फीके, कहीं पे गहरे
न जाने फ़िर क्यूँ, उदासियों का हमारे घर में दख़ल रहा है

सवाल उसके जबाव मेरे, उलझ गया था वहाँ सभी कुछ
वो वक़्त जिसमें विदा लिखी थी, अभी भी दिल में उबल रहा है

बदल तो सकते थे हाल अपने, मगर समय ने दिया न मौका
समय से अपनी निभे भी कैसे, मैं रुक गया तो भी चल रहा है




©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

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