आई रुत फूलों की आई
प्यार-मुहब्बत वाली धुन
भौंरों ने फिर से गाई
आई रुत फूलों की आई
सर्द हवा जब-जब चलती है
शाम भी यादों सी ढलती है
रात एकाकी मन-मन में
तुमको ही सज्दा करती है
भोर से पहले तक नींदें भी
लेतीं नहीं अंगड़ाई
आई रुत फूलों की आई
कोहरा आँखों का धोखा है
राह ने कब रस्ता रोका है
पत्ता-पत्ता झड़ कर आखिर
फिर से वृक्ष नया होता है
बीते गम को छोड़ के पीछे
खुशियों की राह पाई
आई रुत फूलों की आई
क़िस्मत पे न वश चलता है
अपने हाथ से यश फलता है
हाथों पे धर हाथ जो बैठे
उनका व्यर्थ समय ढ़लता है
पर मिट्टी का मन कब
होने देता ये सुनवाई
आई रुत फूलों की आई
सूरज की गर्माहट वाले
खुश्बू की सी राहत वाले
पतझड़ के पीछे-पीछे
दिन आएँगे चाहत वाले
बेबस मन गलियों- गलियों
क्यूँ देता फिरे दुहाई
आई रुत फूलों की आई
©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
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