गुरुवार, 18 जून 2015

वक्त ने की जब भी बहुत बेवफाई की


वक्त  ने की जब भी  बहुत बेवफाई  की,
वर्ना क्यूँ हमने सजा पाई ये तन्हाई की.

तुमने उल्फत भी यूँ इतने पशोपेश में की
वस्ल  की रात हमें फिक्र रही जुदाई  की.

इश्क के दौर से निकले तो फिक्रदार हुए
तेरी गलियों में जब तलक थे शहनशाई की.

दश्त  दर दश्त है हर राह तेरे बाद  मगर
गुलो-गुलजार थी जब तूने रहनुमाई की.


आज सोजे-गम है कभी सरगम थी हयात
तेरे  होते  हमने देखी  हैं हदें  खुदाई  की.


हिज्र अब सारे मौसम, हिज्र है सारा आलम,
जाने क्यों नहीं भूली बात तेरी जुदाई की.


ऐसी चुप है धङकनों का शोर सुन रहा हूँ मैं,
जिंदगी  के  सूने राह पे  ये कैसी  रिहाई  की.


एक दरिया रोज दिल से आँखों तक भटकता है,
झूठी  हँसी  ढाँकती है बात  जग- हसाई  की.


सब्र  बेसब्र रहा, दिल ये मुन्तजिर ही  रहा,
उम्र तमाम देखा किये राह उसी हरजाई की.


                         ©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
                              सर्वाधिकार सुरक्षित

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