शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे



उस कैफे में पीछे बैठ के 

हम दोनों ने एक ही कप में

आधी आधी चाय पी थी

इक दूजे को पास बिठा के

न ही तो पलकें झपकी थीं

न ही कोई बात कही थी


उस कैफे की छत पर जब भी

पूरे चांद की रात खिलेगी

रात के पिछले पहर में छिपकर

इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे


सपनों के उस महल के बाहर

अमियों के एक बाग के अंदर

सबसे ऊंचे पेड़ पे तेरा

मेरा नाम जो कभी लिखा था

इक दूजे को भूल न जाएं

तभी लिखा था


अमियों के उस बाग के अंदर

बूढ़े हो गए पेड़ के नीचे

सपनों की पतझड़ से पहले

इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे


कालेज की उस लैब में अक्सर

साहिर की गजलों को पढ़ते

लफ्ज़ों के अर्थों पर लड़ते

इक दूजे की आंखे तकते 

गलत सलत कविताएं कहते

विरह के कुछ गीत लिखे थे

लिखते लिखते रो पड़ते थे


फिर से लैब की तीसरी सफ में 

अबके उन गीतों को लिखते   

आंखों में बरसात से पहले

इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे


©2025 डॉ रविंद्र सिंह मान