जिंदगी की तेज रफ्तारी में बदहवास सी
मनुजता को अब किसी के दर्द का अहसास नहीं.
सूरज मुङ जाता है छूके अब उजालों की हदें
किरणों को भी अंधेरों में चलने का अभ्यास नहीं
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अब भी मेरे सीने में इक नन्हा उजला दाग सा है,
बिखर चुके गुलशन के लिये आँखों में इक खाब सा है.
सब दूर पास के लोगों को बाहर से सुनहरा लगता है,
इस मन का घरौंदा अंदर से कोई देखे तो बर्बाद सा है.
रविंद्र सिंह मान
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