जाने किसके हाथ है जश्न सदारत का
काँप रहा गोशा हर एक इमारत का
तुम ने जो तजवीज़ किया हाकिम हमको
उन पे तो इल्ज़ाम है क़त्ल-ओ-ग़ारत का
जब तक निर्धन के तन कपड़ा बाकी है
बचा रहेगा तब तक काम तिज़ारत का
बाग़ उजाड़े ख़ुद सत्ता के हाथों ने
और हवाओं पर इल्ज़ाम शरारत का
लिक्खेंगे हम जुल्म-सितम की सच्चाई
बाकी जब तक खूं में असर हरारत का
©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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