अजब से दिल के मंजर हो गये हैं
वो जाने क्यूँ सितमगर हो गये हैं
बला का शोख़ है इख़लास उसका
तभी तो हम मुतासिर हो गये हैं
जमाने में बड़े-छोटे थे हम, पर
मुहब्बत में बराबर हो गये हैं
खुदा बख़्शे हमारे दुश्मनों को
वो खुद ही बद से बदतर हो गये हैं
तिरे ख़त ने लिया जो गैर का नाम
ये दो दरिया, समंदर हो गये हैं
चलेगी उम्र कब तक साथ अपने
कि अब राही को ये डर हो गये हैं
©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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