हर सफ़र के बाद भी सफ़र बाक़ी
ज़िंदगी है क्या कोई कसर बाक़ी
देख लेती है उन्हें देखे बग़ैर
मेरी नज़रों में है वो नज़र बाक़ी
मैं भी उसमें इस तरह बाक़ी रहूँ
बाँसुरी में जिस तरह शज़र बाक़ी
इन लबों पे रखके अपनी तिश्नगी
उसने रख दिया मुझे किधर बाक़ी
दोस्ती, न दिलबरी, न दिल्लगी
दुश्मनी सी है, कहीं अगर बाक़ी
रात-दिन दिल को सुकूँ की है तलाश
है अभी कुछ जिंदगी मग़र बाक़ी
©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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