जो रहा खुद आप में सिमटा हुआ
वो जहां में आज तक किसका हुआ
जिससे पूछो बस यही शिक़वा उसे
दिल लगाने में बड़ा हर्जा हुआ
बस्तियाँ उजड़ी हैं जैसे गाँव की
दिल का भी अपने यही किस्सा हुआ
रात भर कुछ बेक़रारी सी रही
ख़ाब में था चाँद भी बिखरा हुआ
वो चला जायेगा इक़ दिन बेवज़ह,
डर यही था, आखिरत सच्चा हुआ
आपको देखा तो इत्मीनान है
हर कोई लगता है अब देखा हुआ
कुछ तो आती थी उसे जादूगरी
जो मिला उससे, वही उसका हुआ
सोचता हूँ अलविदा के वक़्त भी
इश्क़ का क्यूँ खामखां चर्चा हुआ
बागवाँ है या कोई सय्याद है
हर परिंदा है डरा-सहमा हुआ
अब यकीं आए किसी पर, किस तरह
वो मिरा हो कर नहीं मेरा हुआ
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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