गरज- बरस करते मेघा, बिजली रह-रह चमकाती है
टप्पर पर गिरती बारिश से आँख नहीं लग पाती है
रात उनींदी थके-पके, क्या- क्या सपने दिखलाती है
सहसा भीतर-भीतर कोई धड़का सा लग जाता है
और डरके जगते ही सामने गर सूरज दिख जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है
किसी-किसी दिन साँझों से ही मनहूसी छा जाती है
रात तो जैसे और भी ज्यादा तन्हाई सुलगाती है
कमरे के कोने-कोने में नीरवता झुँझलाती है
खिड़की खोल के रोज सितारों से थोड़ा बतियाता हूँ
जिससे कल बातें की थीं लेकिन जब उसे न पाता हूँ
कहाँ गया वो आज सितारा सबसे पूछना चाहता हूँ
आखिरी पहर तलक भी लेकिन ये तय नहीं हो पाता है
जिससे भी मैं बात करूँ वो ही क्यूँकर खो जाता है
और फिर भीतर का अँधियारा चहुँ ओर इठलाता है
क्या बतलाएँ कैसा गहरा सन्नाटा छा जाता है
पर जब पूर्व आहिस्ता से लाल सुर्ख हो जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है
लेकिन जीवन के रस्ते अनिश्चित, अप्रत्याशित हैं
जाने किन बातों से जुगनू रातों में उत्साहित हैं
जाने किस उम्मीद पे आँखें सपनों को लालायित हैं
ऐसे विकट पलों में मन कैसे आशा रख पाता है?
घुप्प अँधेरों में जब-जब कोई दीया जल जाता है
कितनी खुशियाँ लाता है, जब दिन आता है
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
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