रविवार, 11 फ़रवरी 2018

उल्फ़तों के मारों का दर्द भी न टलता है


गज़ल 


उल्फतों के मारों का दर्द भी न टलता है
चाँदनी के फाहों से रोज घाव जलता है


दिल भी इक जुआरी है, खुद ही दाँव चलता है
और हार के डर से भाग भी निकलता है


हूँ शमा मुहब्बत की, तुम बुझा तो दो, लेकिन
मैं दिया नहीं हूँ जो बुझ के फिर से जलता है


वो उदास शामें फ़िर, घिर के आई हैं दिल में
जिनमें दिल पे खुद का भी कुछ न जोर चलता है


मैं मजे में हूँ तब भी, तुझको याद करता हूँ
याद में तिरी फिर ये, खूब दिल मचलता है


गर पमाइशें दिल की नाप कर बता सकतीं
कौन दिल में रहता है , कौन यूँ उछलता है


 जिंदगी के सहरा में छाँव ढूंढ़ता हूँ मैं
और ख़ाब पेड़ों का साथ-साथ चलता है



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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