कोई दिन जब जीने का भी मन नहीं होता
अपनों में भी जैसे अपनापन नहीं होता
रेत के टीले सपनों में रह-रह आते हैं
दश्तों के संगीत ही तब मन को भाते हैं
आँगन में बहते जल बोझल हो जाते हैं
दूर सराबों में ही जब हम खो जाते हैं
रोज ही भाने वाला कोई उपवन नहीं होता
कोई दिन तो जीने का भी मन नहीं होता
चाक-चौबंद किये दामन भी चाक होते हैं
खुशियों के जंगल भी आखिर खाक होते हैं
यूँ हम इस सूनेपन का जश्न मनाते हैं
दीवारों से मिलकर थोड़ा बतियाते हैं
किसी भी सूरत ये सन्नाटा कम नहीं होता
कभी-कभी तो जीने का भी मन नहीं होता
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
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