शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

कोई दिन जब जीने का मन नहीं होता



कोई दिन जब जीने का भी मन नहीं होता
अपनों में भी जैसे अपनापन नहीं होता

रेत के टीले सपनों में रह-रह आते हैं

दश्तों के संगीत ही तब मन को भाते हैं
आँगन में बहते जल बोझल हो जाते हैं
दूर सराबों में ही जब हम खो जाते हैं


रोज ही भाने वाला कोई उपवन नहीं होता

कोई दिन तो जीने का भी मन नहीं होता


चाक-चौबंद किये दामन भी चाक होते हैं

खुशियों के जंगल भी आखिर खाक होते हैं
 यूँ हम इस सूनेपन का  जश्न  मनाते हैं
दीवारों से मिलकर थोड़ा बतियाते हैं

किसी भी सूरत ये सन्नाटा कम नहीं होता

कभी-कभी तो जीने का भी मन नहीं होता


©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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