रविवार, 21 जनवरी 2018

सब आँखों में रहता हूँ मैं



दरियाओं सा बहता हूँ मैं
सब आँखों में रहता हूँ मैं

उजले चिहरे वालों के भी
मुँह पर काला टीका हूँ मैं

कल तक आँखों का तारा था 
अब आँखों का खटका हूँ मैं

सहराओं में जब्त हुआ हूँ
कतरा-कतरा रिसता हूँ मैं

मुझको साया कहनेवालो
हर सूरज का रस्ता हूँ मैं

सूखा हूँ हर गर्मी की रुत
हर बारिश में बरसा हूँ मैं

मुंडेरों पे राह दिखाता
खुद राहों को तरसा हूँ मैं

कुम्हारों के चाक पे घूमा
चाक-दिलों सा तड़पा हूँ मैं

उन के आँखों की खुशियाँ तो
इन के दिल का सदमा हूँ मैं

हाथों से आँखों को ढ़क कर
सहरा-सहरा भटका हूँ मैं

मुझको तन्हाई में सोचो
दिल का इक अफसाना हूँ मैं

बरबस मन में आने वाला
भूला- बिसरा गाना हूँ मैं

अव्वल-अव्वल मैं सब कुछ था
आखिर में बेगाना हूँ मैं

यादों के खँडहर का जैसे
टूटा सा तहखाना हूँ मैं

जाहिल, पागल, जो भी समझो
दीवाना- दीवाना हूँ मैं

खुल कर हँसने की कोशिश में
घुट-घुट बरसों रोया हूँ मैं

दिल को कोई दोष नहीं है
बस नजरों का धोखा हूँ मैं

बाहर जैसा ही दरिया हूँ
भीतर-भीतर बहता हूँ मैं

ग़म को साथी मान लिया है
अब तन्हा नहीं  रहता हूँ मैं



©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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