दरियाओं सा बहता हूँ मैं
सब आँखों में रहता हूँ मैं
उजले चिहरे वालों के भी
मुँह पर काला टीका हूँ मैं
कल तक आँखों का तारा था
अब आँखों का खटका हूँ मैं
सहराओं में जब्त हुआ हूँ
कतरा-कतरा रिसता हूँ मैं
मुझको साया कहनेवालो
हर सूरज का रस्ता हूँ मैं
सूखा हूँ हर गर्मी की रुत
हर बारिश में बरसा हूँ मैं
मुंडेरों पे राह दिखाता
खुद राहों को तरसा हूँ मैं
कुम्हारों के चाक पे घूमा
चाक-दिलों सा तड़पा हूँ मैं
उन के आँखों की खुशियाँ तो
इन के दिल का सदमा हूँ मैं
हाथों से आँखों को ढ़क कर
सहरा-सहरा भटका हूँ मैं
मुझको तन्हाई में सोचो
दिल का इक अफसाना हूँ मैं
बरबस मन में आने वाला
भूला- बिसरा गाना हूँ मैं
अव्वल-अव्वल मैं सब कुछ था
आखिर में बेगाना हूँ मैं
यादों के खँडहर का जैसे
टूटा सा तहखाना हूँ मैं
जाहिल, पागल, जो भी समझो
दीवाना- दीवाना हूँ मैं
खुल कर हँसने की कोशिश में
घुट-घुट बरसों रोया हूँ मैं
दिल को कोई दोष नहीं है
बस नजरों का धोखा हूँ मैं
बाहर जैसा ही दरिया हूँ
भीतर-भीतर बहता हूँ मैं
ग़म को साथी मान लिया है
अब तन्हा नहीं रहता हूँ मैं
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
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