इक़ ग़ज़ल ज़ुल्म पर, तबाही पर
लोकराजों में राजशाही पर
मुंसिफों का इमान कायम है
हुक्मरानों की वाह-वाही पर
शहर क्या, देश ही मिरा चुप है
वारदातों की हर गवाही पर
नासमझ है, न कुछ समझता है
दिल मुक़र्रर है फ़िर कुताही पर
किस तरह होश बरक़रार रहे
उन निग़ाहों की कम-निग़ाही पर
चाँद रातें, सहर, बहार के दिन
चुप रहे अपनी बेगुनाही पर
दोष नगमा-निग़ार को क्या दें
वक्त करता है ज़ुल्म स्याही पर
©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान
दिल मुक़र्रर है फ़िर कुताही पर
किस तरह होश बरक़रार रहे
उन निग़ाहों की कम-निग़ाही पर
चाँद रातें, सहर, बहार के दिन
चुप रहे अपनी बेगुनाही पर
दोष नगमा-निग़ार को क्या दें
वक्त करता है ज़ुल्म स्याही पर
©2020 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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