हिज्र की रात मुक़द्दर से सितारे निकले
राह में टूटे हुए ख़ाब हमारे निकले
ग़ैर ने छूके मुझे हाथ जलाए अपने
राख समझा था जिसे सुर्ख अँगारे निकले
जब अकेले में तलाशी हुई दिल की अपने
मेरे अंदर से सभी अक्स तुम्हारे निकले
इश्क तो सिर्फ़ तमाशा था शनासाई का
रक़्स करते हुए सब लोग बंजारे निकले
उम्र भर दिल को डराते रहे तन्हाई-ओ-ग़म
यार माना तो ये दिलबर से भी प्यारे निकले
कुछ मुक़द्दर के तमाशे भी थे बर्बादी में,
बेशतर अपने रफ़ीकों के इशारे निकले
©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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