रविवार, 8 सितंबर 2019

हिज्र की रात मुक़द्दर से सितारे निकले



हिज्र की रात  मुक़द्दर से सितारे निकले
राह  में  टूटे   हुए  ख़ाब  हमारे  निकले

ग़ैर  ने   छूके   मुझे  हाथ  जलाए  अपने
राख समझा था जिसे सुर्ख अँगारे निकले

जब अकेले में तलाशी हुई दिल की अपने
मेरे अंदर से  सभी अक्स तुम्हारे निकले

इश्क तो  सिर्फ़  तमाशा था शनासाई का
रक़्स  करते  हुए सब लोग बंजारे निकले

उम्र भर दिल को डराते रहे तन्हाई-ओ-ग़म
यार माना तो ये दिलबर से भी प्यारे निकले

कुछ  मुक़द्दर के तमाशे  भी थे बर्बादी में,
बेशतर अपने  रफ़ीकों के  इशारे निकले

©2019 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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