भूख-बेकारी, इक़ नारा हो, ऐसा भी हो सकता है
"सबकी तरक्क़ी" बस वादा हो, ऐसा भी हो सकता है
तुम मंदिर-मस्ज़िद बाँटो हो, पर इस देश के लोगों ने,
रोटी, कपड़ा, घर चाहा हो, ऐसा भी हो सकता है
वो सच में दरवेश रहा हो, ऐसा भी हो सकता है
या फिर काफ़िर मुझ जैसा हो, ऐसा भी हो सकता है
मंदिर-मस्जिद तोड़ने वालो, बैठो, बैठ के सोचो तो
जो ईश्वर है वही खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है
लिए कुदालें, हँसिये, जो सदियों से खोद रहा धरती
वही जहाँ का असल खुदा हो, ऐसा भी हो सकता है
दस्तक़ सुन कर मैं भी चौंका, और दिल भी मुँह को आया
दरवाज़े पर सिर्फ़ हवा हो, ऐसा भी हो सकता है
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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