शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा



तुम्हारी उल्फ़त में मैंने देखा कि कैसे सब कुछ बदल रहा है
शबों की ठंडक सुलग उठी है, दिनों का पारा पिघल रहा है

कभी बहारों से मिलके नाचे, कभी पहाड़ों पे चढ़के बरसे
चुनांचे अपना तमाम क़िस्सा, खुमारियों का शग़ल रहा है

अगर तुम्हारी अदा रही है, कसक दिलों को सदा रही है, 
गुलाब होठों की इक़ छुअन को बदन सर-ओ-पा मचल रहा है

उदासियों के उदास चिहरे, कहीं से फीके, कहीं पे गहरे
न जाने फ़िर क्यूँ, उदासियों का हमारे घर में दख़ल रहा है

सवाल उसके जबाव मेरे, उलझ गया था वहाँ सभी कुछ
वो वक़्त जिसमें विदा लिखी थी, अभी भी दिल में उबल रहा है

बदल तो सकते थे हाल अपने, मगर समय ने दिया न मौका
समय से अपनी निभे भी कैसे, मैं रुक गया तो भी चल रहा है




©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान

 सर्वाधिकार सुरक्षित

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