प्यार मुहब्बत सीखा होता
नफ़रत का सर नीचा होता
इसका चिहरा उसका होता
यूँ होता तो कैसा होता
काश वफ़ा का मोती तुमने
दीवानों में ढूंढा होता
मेरे मन से उसके मन को
कोई सीधा रस्ता होता
अगर न झूठी खुशियाँ होतीं
सब आँखों में दरिया होता
पीड़, निराशा, गम तो सब हैं
तू भी होता अच्छा होता
याद तुम्हारी गर आ जाती
मैं मेले में तन्हा होता
बस्ती बस्ती आग लगाकर
खूब ढिंढोरा पीटा होता
न हिंदू कोई मुस्लिम होता
कोई रोज न झगड़ा होता
इतनी बारिश देने वाले
झौपड़ियों का सोचा होता
©2017 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
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