मेरी मुहब्बत का नहीं तुम्हें यकीं फिर भी
लौट आया हूँ सारी दुनिया से यहीं फिर भी
साँझ के बाद से चलता हूँ मैं सहर के लिये
तमाम रात तू मिलता नहीं कहीं फिर भी
है मेरी शक्ल भी और काम भी करता हूँ बहुत
क्यूँ मेरी जात पे जाना है लाजिमी फिर भी?
मेरे हिस्से में आया दश्त और यायावरी
तमाम उम्र चले मंजिल मिली नहीं फिर भी
वक्त की राह में तुम छूट गये पर अंत तलक
तेरी उम्मीद मेरी हमसफर रही फिर भी
©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
सर्वाधिकार सुरक्षित
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें