शुक्रवार, 29 मई 2015

मुहब्बत का नहीं तुम्हें यकीं


मेरी मुहब्बत का नहीं तुम्हें  यकीं फिर भी
लौट आया हूँ सारी दुनिया से यहीं फिर भी

साँझ के बाद से चलता हूँ मैं सहर के लिये
तमाम रात तू मिलता  नहीं कहीं फिर भी

है मेरी शक्ल भी और काम भी करता हूँ बहुत
क्यूँ मेरी जात पे जाना है लाजिमी फिर भी?

मेरे  हिस्से में आया  दश्त और यायावरी
तमाम उम्र चले मंजिल मिली नहीं फिर भी

वक्त की राह में तुम छूट गये पर अंत तलक
तेरी  उम्मीद  मेरी हमसफर रही फिर भी

©2015 डॉ रविन्द्र सिंह मान
 सर्वाधिकार सुरक्षित

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