उस कैफे में पीछे बैठ के
हम दोनों ने एक ही कप में
आधी आधी चाय पी थी
इक दूजे को पास बिठा के
न ही तो पलकें झपकी थीं
न ही कोई बात कही थी
उस कैफे की छत पर जब भी
पूरे चांद की रात खिलेगी
रात के पिछले पहर में छिपकर
इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे
सपनों के उस महल के बाहर
अमियों का एक बाग लगा था
सबसे ऊंचे पेड़ पे तेरा-
मेरा नाम जो कभी लिखा था
इक दूजे को भूल न जाएं
तभी लिखा था
सपनों के उस महल के बाहर
अमियों के उस बाग के अंदर
बूढ़े हो गए पेड़ के नीचे
सपनों की पतझड़ से पहले
इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे
कालेज की उस लैब में अक्सर
साहिर की गजलों को पढ़ते
लफ्ज़ों के अर्थों पर लड़ते
इक दूजे की आंखे तकते
गलत सलत कविताएं कहते
विरह के कुछ गीत लिखे थे
लिखते लिखते रो ही पड़े थे
फिर से लैब की आखिरी सफ़ में
विरह के गीतों को पढ़ते
आंखों में बरसात से पहले
इक दिन हम तुम फेर मिलेंगे
©2025 डॉ रविंद्र सिंह मान