जब भी शामों को थका- थका सिर पर से सूरज ढलता है
और सँध्या की दस्तक देता जब पच्छम रंग बदलता है
जब- जब बादल के पीछे से पूनम का चाँद निकलता है
तुम फिर से याद आ जाते हो
धरती की तपन जब रातों की ठंडक में सिहरने लगती है
चँदा से चकोरी मिलने को हर तौर बदलने लगती है
जब रात भी आखिर में रह- रह राहों सी मचलने लगती है
तुम फिर से याद आ जाते हो
जब शहरों में रहते- रहते, वनवास की बातें होती हैं
तन- मन से भरे खाये- पिये, उपवास की बातें होती हैं
जब हाल से कोई खुश न हो इतिहास की बातें होती हैं
तुम फिर से याद आ जाते हो
जब रोज दिनों की तह में से, इक दिन तेरे रंग सा चढ़ता है
जब रोज हवा के झुरमट में कोई तेरी खुश्बू भरता है
जब रोज दिशाओं से कोई तेरी ओर इशारा करता है
तुम फिर से याद आ जाते हो
धरती के दूर किनारे पर, मैं तन्हाईयों से लड़ता हूँ
खुद अपने- आप से डरा- डरा, उन रुसवाईयों से लड़ता हूँ
हर रोज जुदा होकर खुद से, इन परछाईयों से लड़ता हूँ
और याद तुम्हें ही करता हूँ
सुन, आज भी दिल की गलियों में तेरे ही तराने बजते हैं
सुन, आज भी रात की पलकों पर बस खाब तेरे ही सजते हैं
सुन, आज भी, झुककर दीवाने, तेरे नाम पे सज्दे करते हैं
जब-जब भी याद आ जाते हो
©2018 डॉ रविन्द्र सिंह मान
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